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६० चिन्तन के क्षितिज पर
का मोल तोल हो रहा है । कुछ वर्ष पूर्व बाजार में लड़कियों के भाव ऊंचे थे, आज लड़कों के ऊंचे हैं ।
ठहराव की कुप्रथा
लड़के का पिता इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाता है । विवाह से पूर्व उसने लड़के की पढ़ाई आदि पर जितना व्यय किया होता है, उसे ब्याज सहित कन्या के पिता से उगाह लेना चाहता है । वह खुल्लम-खुल्ला ठहराव करता है कि इतने रुपये दे सको, तो बात करो, अन्यथा मेरे लड़के के लिए और बहुत-सी लड़कियां हैं । लड़की के पीले हाथ करने की चिन्ता से दबे हुए कन्या के पिता को वह मांग पूरी करनी ही होती है । स्वयं के पास उतनी रकम नहीं होती, तो ऋण लेकर देता है, घर-बार बेचकर देता है । देता क्या है, देना पड़ता है । कन्या का पिता होने के कारण यह उसकी विवशता हो गयी है । ठहराव की इस कुप्रथा ने विवाह के अमृतोपम आनन्द में विष घोल दिया है। पिता अपनी पुत्री को स्वेच्छा से देता है, वह बुरा नहीं है, परन्तु उसमें अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए | अनिवार्यता और सौदागरी ने दहेज को ठहराव बना दिया है, जो कि सर्वथा त्याज्य है । इसी प्रकार प्रदर्शन, बृहद् भोज तथा समधी की अनेकानेक मांगों के साथ जूझता हुआ कन्या का पिता एक ही कन्या के विवाह से मानसिक स्तर पर टूट सा जाता है।
ठहराव का विरोध करें
विवाह सम्बन्धी ये समस्याएं स्वल्पाधिक रूप में भारत में प्रायः सभी क्षेत्रों तथा तबकों में व्याप्त हैं, परन्तु मेरे विचार से राजस्थानी समाज में इनकी बहुत अधिक प्रबलता है । समाज सुधारकों तथा कर्णधारों का कर्तव्य है कि विवाह-संस्कार को बोझिल बना देने वाली इन प्रथाओं और रूढ़ियों को हटाकर वे सहजता तथा सादगी को प्रश्रय देने वाले वातावरण का निर्माण करें । विवाह सूत्र में बंधने वाले हर युवक और युवती को भी यह निश्चय करना चाहिए कि वे अपना मूल्य नहीं लगने देंगे और बाजार भाव में बिकने का विरोध करेंगे अर्थात् अपने विवाह में ठहराव नहीं होने देंगे ।
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