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अनुशासन : एक समस्या
चिन्तनीय प्रश्न
मनुष्य की कर्मण्यता और नव प्रेमिता के चारों ओर जब प्रतिबन्धों की दीवारें उठने लगती हैं, ऐसी विवशता की स्थिति में अनुशासनशीलता के स्थान पर अनुशासन
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ता को ही पनपने का अधिक अवसर मिलता है । जब तक ऐसी विवशता नहीं आती, तब तक प्राय: अनुशासन का विरोध कोई नहीं करता ।
संख्यातीत वर्षों से अनुशासन से परिचित मानव-जाति के लिए आज अनुशासन नयी वस्तु नहीं है । वह अनुशासन पर श्रद्धा रखकर ही चलती है । राष्ट्र, समाज, धर्म, गुरुजनों और परिजनों के अनेकविध अनुशासनों में सन्तुलन बिठा लेने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती । भारतीय जनता के लिए तो यह सन्तुलन बिठाना अपेक्षाकृत और भी सरल है, क्योंकि वह स्वभावतः अधिक कोमल और विनीत रही है । यहां की जनता के लिए जब यह प्रश्न उठाया जाता है कि वह अनुशासन - हीन होती जा रही है, तो अवश्य ही चिन्तनीय हो जाता है ।
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दोष किसका है ?
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अनुशासनहीनता का दोष यहां प्रायः वर्तमान पीढ़ी के युवकों तथा छात्रों पर लगाया जाता है, पर यह कैसे कहा जा सकता है कि यह दोष मात्र उन्हीं का है । मेरी धारणा है कि उनका उतना दोष नहीं है, जितना कि उनके मार्ग-दर्शकों या अभिभावकों का है। युवकों और छात्रों में जोश होता है, नया रक्त कुछ कर दिखाने को लालायित रहता है। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें ठीक मार्ग-दर्शन मिले तो वे समाज और राष्ट्र के लिए बड़े उपयोगी हो सकते हैं । समुचित मार्ग-दर्शन के अभाव में उनकी शक्ति का उपयोग ऐसे व्यक्ति करने लगते हैं, जो समाज के लिए घातक होते हैं । वे युवक - शक्ति को गलत मार्ग की ओर मोड़कर अपनी नेतृत्व की भूख को तृप्ति प्रदान करते हैं। युवक ऐसे लोगों के प्रभाव में आकर अपनी शक्ति का उपयोग करने का अवसर तो प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु अपरिपक्व होने के कारण वे शीघ्रता से यह निर्णय नहीं कर पाते कि उनकी शक्ति का बहाव अच्छाई की ओर हो रहा है या बुराई की ओर ? मेरा विश्वास है कि युवा शक्ति के उपयोगार्थं यदि शासन के पास प्रचुर क्षेत्र हो और यथासमय उन्हें उचित मार्गदर्शन मिलने लगे, तो अनुशासन हीनता की शिकायत स्वतः ही समाप्त हो जाए । मार्गदर्शकों के पास इतनी शक्ति अवश्य होनी चाहिए, जिससे वे युवकों में यह विश्वास उत्पन्न कर सकें कि निर्दिष्ट मार्ग ही उनके लिए सर्वोत्कृष्ट है । यदि इतना किया जा सका, तो शक्ति का सदुपयोग होने के साथ-साथ उच्च नागरिकों के निर्माण का कार्य भी स्वतः सम्पन्न हो जाएगा।
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