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________________ ५६ चिन्तन के क्षितिज पर प्रगति के लिए पहले की तरह अनुशासन की आवश्यकता नहीं रह गयी है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जब तक मनुष्य समाज बनाकर रहता रहेगा, तब तक अनुशासन की आवश्यकता किसी भी प्रकार से मिट नहीं सकती। उसको हर स्थिति में अपनी स्वच्छन्दता पर अंकुश लगाकर ही रहना पड़ेगा। समाज को पूर्णत: छोड़कर गुहा-मानव के युग में पुनः चला जाना उसके लिए अब किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है, वांछनीय भी नहीं है। तब फिर यह प्रश्न सामने आता है कि आखिर यह अनुशासन-हीनता फैलती क्यों जा रही है ? इस प्रश्न के साथ ही मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ आता है कि कहीं स्वयं अनुशासन ही तो अनुशासनहीन नहीं बन गया है ? मुझे अपने पहले प्रश्न से यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण लगता है । ज्यों-ज्यों इस पर सोचता हूं, त्यों-त्यों यही अधिक सही लगता है कि अनुशासन को भी अपनी सीमाएं रखनी चाहिए। अन्यथा उसके प्रति पालक अनुशासन-हीन बनेंगे ही। वर्तमान के संविधान की ओर दृष्टिपात करने से यह तथ्य सम्भवतः अधिक स्पष्ट हो जाएगा। नियमों का जाल कहा तो यह जाता है कि जिस राज्य-सत्ता में नियम कम से कम होते हैं, वही सर्वोत्तम होती है, परन्तु कार्य-व्यवहार में इससे बिल्कुल उलटा हो रहा है। जिन नियमोपनियमों को मनुष्य ने कभी सिर का मुकुट मानकर धारण किया था, आज वे बढ़ते-बढ़ते सिर का भार बन गये हैं। भार भी इतना कि वाहक उसके नीचे दबकर पिस जाए । नियमावली के इस जाल में इतना झाड़-झंकाड़ उग आया है कि आगे बढ़ने का कोई निरापद मार्ग तो दूर, कोई पगडंडी भी दृष्टिगत नहीं होती । ऐसी विषम स्थिति में जिसको जिधर से ठीक लगता है, वह उधर से ही अपना मार्ग खोजता है, नयी पगडंडी निकालता है और उसी को सही सिद्ध करने वाले वकील खड़े करता है। आज की अनुशासन-हीनता में अन्य अनेक कारणों के साथ यह एक बहुत बड़ा कारण मुझे प्रतीत होता है, जो कि औरों के द्वारा प्रायः उपेक्षित कर दिया जाता है। कोढ़ में खाज जनता से यदि अनुशासनशीलता की अपेक्षा की जाती है, तो उसके पूर्व अनुशासक के लिए यह अत्यन्त आवश्यक होगा कि वे संविधान को 'अगम्य' होने से बचाएं। विधि-निषेधों और उनके अपवादों की भरमार से जो अगम्यता है, उसके साथ ही जन-भाषा की उपेक्षा और जनता की अशिक्षा ने कोढ़ में खाज का काम किया है। जो अभी तक ठीक-ठीक जाना ही नहीं गया है, उसका पालन कैसे किया जा सकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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