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अनुशासन : एक समस्या ५५
हआ। पर-हित में बाधक बनने वाले स्वहित का स्वेच्छया परित्याग तभी किया जा सकता है, जबकि अपनी भावनाओं पर अपना निन्यत्रण स्थापित किया गया हो । प्रारम्भ में यह अनुशासन पारस्परिक प्रेम के आधार पर किया जाता रहा, परन्तु ज्यों-ज्यों सामूहिकता का दायरा बढ़ा, त्यों-त्यों स्वहित के परित्याग की अधिकाधिक आवश्यकता होती गई । आखिर उस त्याग से मनुष्य मुंह चुराने लगा। उसका प्रयास होने लगा कि स्वयं उसको कम-से-कम त्याग करना पड़े, परन्तु दूसरों के त्याग का फल भोगने का अवसर अधिक-से-अधिक मिलता रहे। यह भावना त्याग की भावना के समान सामूहिक-जीवन के लिए हितकर नहीं थी। इसमें परार्थ या परमार्थ के स्थान पर केवल स्वार्थ का ही प्राधान्य था।
अनुशासन : पहला कदम दुर्भावना छूत के रोग के समान होती है। उसके कीटाणु बहुत शीघ्र दूसरों तक पहुंच जाते हैं । फलतः प्रत्येक मनुष्य की भावना में वे ही विचार उभरने लगे । जब हर एक अपने आपको त्याग से बचाने लगा और दूसरों के त्याग का उपभोग करने को उत्सुक रहने लगा, तो अव्यवस्था और आपा-धापी होने लगी। उस स्थिति में स्वेच्छया अनुशासन की वृत्ति को फिर से जागरित करने के लिए समूह के प्रभावक व्यक्तियों ने मिलकर कुछ सीमाएं निर्धारित की, जो सबके लिए समान रूप से स्वीकार्य हुईं। यहीं से अनुशासन की वृत्ति को एक स्वरूप मिलना प्रारम्भ हुआ। राजतंत्र की स्थापना सर्व स्वीकृत नियमावली ने व्यक्ति को वैयक्तिकता की भूमि से उठाकर सामाजिकता की भूमि पर ला खड़ा किया। साथ ही स्वेच्छा के स्थान पर बाध्यता का भी प्रवेश हुआ और नियम पालन न करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी। कालान्तर में नियम-पालन और दण्ड की सुव्यवस्था के लिए राजतंत्र की स्थापना हुई। इस प्रकार समय के साथ-साथ अनुशासन के आकार, प्रकार और आधार आदि में अनेक परिवर्तन आते रहे । उसका स्वरूप नदी के उस स्वरूप की तरह विराट होता गया, जो कि अपने प्रारम्भ काल में मात्र एक पतली-सी धारा होती है। आज के ये भारी-भरकम संविधान और ये प्राणान्तक दण्ड-संहिताएं इस बात को पूर्णतः प्रमाणित कर देती हैं।
अनुशासन की सीमा आजकल प्रायः कहा जाता है कि हर स्थान पर अनुशासन-हीनता फैल रही है। यह स्थिति आज की एक बृहत्तम समस्या बन गयी है। इसको हल करने के लिए
इसके कारणों की तह तक पहुंचना अत्यन्त आवश्यक है। क्या आज मानवीय Jain Education International For Private & Personal Use Only
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