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५२ चिन्तन के क्षितिज पर
अन्य किसी के द्वारा नहीं, अतः अपने को देखना, अपना उपचार करना ही श्रेयोमार्ग है। अपना रोग या अपना दोष बहुत साधारण या बहुत छोटा लगता हो, तो उस जान को वास्तविक मानकर प्रायः खतरा ही मोल लिया जाता है। बहुधा अपना दोष स्वयं को जितना छोटा लगता है, उससे वह बहुत बड़ा होता है। समुद्रतल पर बहने वाली बर्फ की चट्टान बाहर से जितनी दिखाई देती है, उससे कई गुना जल के अन्दर होती है। इसीलिए अपने लिए आत्म-दर्शन की प्रक्रिया निरन्तर चालू रहनी चाहिए । दूसरों के दोषों को देखते रहने का अभ्यस्त मनुष्य बहुधा अपने दोषों को देखना भूल जाता है । यदि एक बार भी वह स्वयं के अन्दर झांक कर देख ले, तो निश्चय ही फिर दूसरों के अन्दर झांकना भूल जाएगा। दूसरों से अपने को अच्छा या उत्कृष्ट समझने की भूल भी फिर सम्भवत: नहीं करेगा।
शिष्य का निवेदन एक योगी ने अपनी साधना के द्वारा अनेक चामत्कारिक शक्तियां उपार्जित कर ली। चमत्कार को नमस्कार करने वाली दुनिया में चारों ओर उसके भक्त ही भक्त हो गए। वे जहां जाते, लोगों की भीड़ लग जाती। उनकी वैयक्तिक सेवाओं के लिए उनके पास एक अन्य संन्यासी शिष्य था । वह साधना में तो नहीं, परन्तु उनकी सेवा करने में सदा तत्पर रहता। कालान्तर में योगी वृद्ध हो गए। सेवाभावी संन्यासी ने तब उनसे कहा---'भगवन् ! आपके पास तो इतने लोग आते हैं और आपका इतना महत्त्व है। परन्तु पीछे से मुझे कौन पूछेगा? मुझे कोई ऐसा चमत्कार सिखा दीजिए ताकि आपके शिष्य के अनुरूप मेरी भी पूछ होती रहे।'
गुरु का अवदान : शिष्य का प्रयोग गरु ने अपने झोले में से निकाल कर एक डंडा दिया और कहा कि यह अपने पास रखो। इसका अगला सिरा जिसकी ओर कर दोगे, उसके मन को तुम स्पष्ट पढ़ सकोगे, उसके अन्दर जो भी अच्छा-बुरा होगा, वह सब तुम्हारे सामने स्पष्ट आ जाएगा।
शिष्य ने डंडा अपने हाथ में ले लिया। प्रयोग करके देखने की इच्छा बलवती हुई । वहां और कोई तो था नहीं, अतः उसकी नोंक को गुरु की ओर ही धुमा दिया। उसी क्षण गुरु का समग्र अन्तरंग उसको अपनी हस्त-रेखा के समान स्पष्ट दिखाई देने लगा। उसने देखा—गुरुजी के मन के एक कोने में काम-क्रोध आदि दुर्गुणों के कुछ कीड़े कुलबुला रहे हैं । अपने गुरु को उसने सदैव भगवत् तुल्य पवित्र समझा था । आज उनके मन की मलिनता को देखकर उसका मन वितृष्णा से भर उठा।
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