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अपना दर्शन, अपने द्वारा ५३
स्वयं को देखें गुरु ने उसके मनोभावों को भांप लिया। उन्होंने कहा-'वत्स! जरा डंडे के अग्रभाग को अपनी ओर भी मोड़ो?'
शिष्य ने कहा—'मैं अपनी ओर क्यों मोडूं ? मैंने तो अपना सारा जीवन आपकी सेवा में ही समर्पित कर रखा था। मेरे सामने तो कार्य ही इतना रहता था कि काम, क्रोध आदि को वहां उत्पन्न होने का कोई अवसर ही नहीं था।'
गुरु ने कहा—'फिर भी देख लेने में क्या आपत्ति है ?'
शिष्य ने बड़े आत्म-विश्वास के साथ डंडे के अग्र भाग को अपनी ओर किया। ज्यों ही उसने अपने अन्दर झांककर देखा, उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा । वह तो स्वयं को परम पवित्र मान रहा था, परन्तु वहां तो मन में सर्वत्र न जाने कितने प्रकार के कीड़ों से स्थान संकुल हो रहा था !
उस आत्म-दर्शन के साथ ही उसका घमण्ड चूर-चूर हो गया । गुरु-चरणों में नत होकर उसने स्वयं को सदा के लिए सुधार लिया।
इसीलिए कहा जा सकता है कि स्वयं के अन्दर झांककर देखना सर्वाधिक आवश्यक है, अन्यथा मन में आत्म-गौरव की जो अनेक निरर्थक भ्रांतियां पनप रही होती हैं, वे टूट नहीं पातीं। अपने ही द्वारा जब अपने दर्शन की तैयारी की जाती है, तभी वास्तविकता के दर्शन की तैयारी होती है और तभी व्यक्ति के अन्दर छिपी भगवत्ता के दर्शन भी सहज हो जाते हैं।
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