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________________ अपना दर्शन, अपने द्वारा पर-दर्शन की वृत्ति मनुष्य के पास आंखें हैं, परन्तु स्वभावतः ही वे अन्य वस्तुओं को तो देख पाती हैं, किन्तु अपने आपको नहीं देख पातीं। आंखों के स्वामी स्वयं मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही है। आंखें सम्भवतः उसी के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। मनुष्य अपने अतिरिक्त अन्य सभी को जानने में जितनी रुचि रखता है, उससे शतांश भी अपने को जानने में नहीं रखता। अपनी ओर झांकने में सम्भवतः उसे भय लगता है। अपनी सम्भावित विरूपता और नग्नता ही उस भय का कारण हो सकती है। अपनी इस निर्बलता को ढांकने के लिए ही वह प्रायः दूसरों की कमियों को गिनाता रहता है ताकि स्वयं की कमियां उसे कचोटें नहीं। उनसे अनभिज्ञ रहने, उनकी ओर से आंखें मूंद लेने को ही वह अपने लिए श्रेयस्कर मानता है। रोग को भुला देना ही रोग से छुटकारा पाना नहीं है। उसे भलाया या झुठलाया जाएगा, तो उसके बढ़ते जाने की ही सम्भावना अधिक है। रोग को मिटाना है, तो पहले उसे तथा उसके कारणों को जानना आवश्यक है और फिर उपचार को जानना और करना होगा। अपने उपचार के लिए अपने ही रोग को जानना होता है । दूसरे के रोग को जान लेने से अपने रोग में तनिक भी अन्तर नहीं आ पाता। अपनी ओर झांके मनुष्य बहत लम्बे समय से दूसरों के रोगों को, कमियों को जानने में रुचि लेता रहा है, पर अब अपने रोग को जानने और उसका प्राथमिकता से उपचार करने का अवसर आ गया है। यदि कोई यह कहता है कि मेरे से कहीं अधिक रोग-ग्रस्त दूसरे हैं, अतः उनका उपचार पहले अपेक्षित है, तो यह एक दृष्टि-भ्रम ही कहा जाएगा। यदि सत्य भी हो, तो भी उसका उपचार उसी के द्वारा सम्पन्न होगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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