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प्राण : एक व्यावहारिक विश्लेषण ४५
परन्तु वह ठीक नहीं होता क्योंकि प्रकृति द्वारा मुख का निर्माण भोजन चबाने, रसानुभूति करने तथा बोलने के उपयुक्त ही किया गया है । श्वास-ग्रहण करने का उपयुक्त अवयव तो नाक ही है । उसकी लम्बी नलिका में से गुजरती हुई ग्रीष्मकालीन गरम हवा तथा शीतकालीन ठण्डी हवा आवश्यकता के अनुसार समतापीय हो जाती है। इससे जब श्वास फुफ्फुस (फेफड़ों) तक पहुंचता है तो वह रूक्ष न होकर स्निग्ध बन जाता है। नासारन्ध्रों के प्रारम्भिक भाग में छोटे केशों का एक जंगल उगा होता है । प्रकृति के वन-विभाग ने बाहर के रेगिस्तान को अन्दर घुसने से रोकने के लिए इसे लगाया है। यह वायु को छानता है । श्वास लेते समय वायु के साथ आने वाले रजकणों को आगे बढ़ने से रोकता है। इस जंगल से आगे जो समतल भाग आता है, वह श्लेष्म की चिकनी पर्त से गीला रहता है। केशों के जंगल से बचकर जो रजकण या कीटाणु आगे बढ़ते हैं, वे यहां चिपक कर रह जाते हैं। इस प्रकार नासारंध्र से आगे बढ़ती हुई वायु कंठ, टेंटुआ और स्वर-यंत्र को लांघकर श्वास नलिका के माध्यम से फुफ्फुस में पहुंचती है। ये फुफ्फुस (फेफड़े) हंसली की हड्डी के पीछे नीचे की ओर फैले हुए होते हैं । ये दो होते हैं। स्पंज की तरह इनमें संकोच-विकोच की स्वाभाविक क्षमता होती है। इनमें सोलह करोड़ से लेकर अठारह करोड़ तक प्रकोष्ठ (कोटर) बने हुए होते हैं। श्वास के द्वारा अन्दर खींची गयी वायु इन प्रकोष्ठों में फैल जाती है। वहां की सूक्ष्म आंतरिक प्रक्रिया के द्वारा वायु का वह अंश, जिसे प्राण वायु (ऑक्सीजन) कहते हैं, सोख लिया जाता है। गृहीत प्राण वायु शरीर में व्याप्त होकर नस-नाड़ियों के माध्यम से विभिन्न अवयवों में कार्यरत हो जाती है, शेष वायु कार्बन डाइआक्साइड के रूप में दूषित एवं अनावश्यक कणों के साथ बाहर फेंक दी जाती है।
श्वास की मात्रा व्यक्ति इतना कम श्वास लेता है कि फेफड़े के पूरे प्रकोष्ठ कभी शायद ही भर पाते हों। उनकी क्षमता प्रायः छह लीटर तक वायु ग्रहण करने की होती है पर व्यक्ति बहुधा एक या दो लीटर से आगे नहीं बढ़ता। इसलिए प्राणायाम का अभ्यास करने वालों को सिखाया जाता है कि वे श्वास लम्बा लें । प्रलम्ब श्वास-विधि को अपना लेने के बाद व्यक्ति यह अनुभव करता है कि जितना श्वास वह पहले लेता था अब उससे तीन-चार गुना अधिक ग्रहण कर रहा है । अधिक प्राण वायु ग्रहण करने से उसकी प्राण-शक्ति बढ़ जाती है । फलत: इन्द्रियां तेजस्वी हो जाती हैं। आकृति पर अधिक ओज, शरीर में अधिक स्फति और बल का अनुभव होने लगता है । कार्य-शक्ति भी वृद्धिंगतहो जाती है।
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