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________________ ४४ चिन्तन के क्षितिज पर रही होती है, तो यह निश्चय करने में विलम्ब नहीं होता कि व्यक्ति जीवित है । इसीलिए कहा जा सकता है कि श्वास का अस्तित्व ही जीवन के अस्तित्व की प्रथम घोषणा है और उसका अभाव मृत्यु की । जो श्वास प्रति समय साथी बनकर मनुष्य के पास रहता है, उसके विषय में उसका अज्ञान भी उतना ही गहन है । व्यक्ति प्रायः कभी ध्यान ही नहीं देता कि श्वास आ रहा है या जा रहा है ? लम्बा आ रहा है या छोटा, जल्दी आ रहा है या धीरे-धीरे । इस विषय में इतना औदासीन्य क्यों है, कह पाना कठिन है । शायद नीतिकारों का उक्त कथन कुछ समाधान प्रदान कर सकता है - " अति परिचय हो जाने पर किसके सम्मान में ह्रास नहीं हो जाता ?" व्यक्ति ने कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि हमारे शरीर में श्वास के द्वारा कौन-कौन से स्थान प्रभावित होते हैं । उसकी क्या कार्य विधि है और श्वास-प्रश्वास कैसे एवं कितना लेना छोड़ना चाहिए । मानो इन सारी जिज्ञासाओं या तो अनुत्थान हत कर दिया गया हो या फिर अज्ञानान्धकार में विलीन कर दिया गया हो । पहला श्वास जब तक बालक मां के गर्भ में होता है तब तक उसका जीवन मां के श्वास-प्रश्वास से ही चलता रहता है। मां का श्वास ही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है । गर्भ में उसके शरीर के अवयव धीरे-धीरे परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त होते हैं । बालक ज्यों ही गर्भ से बाहर आता है, उसके साथ एक विचित्र घटना घटती है। कि अब उसको अपने ही बल पर जीना प्रारम्भ करना होता है । श्वास सम्बन्धी प्रक्रिया चालू हो जाती है, उसके फेफड़े संकोच -विकोच करने लगते हैं । फलस्वरूप शिशु में नवस्थिति जनित भय पैदा होता है और वह रोने लग जाता है । प्रारम्भावस्था में बालक के पास सुख-दुःख एवं भय आदि जनित अपनी सभी स्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए एक मात्र रुदन ही साधन होता है । अपने प्रथम रुदन के द्वारा बालक अपने अवतरण एवं जीवित सत्ता की सूचना सबको देता है । श्वास - निःश्वास की प्रक्रिया श्वास प्राणियों के जीवन का एक सबल आधार है, वह उससे वायु के रूप में प्राण ग्रहण करता है । यों तो वायु ग्रहण के लिए मनुष्य के पास अनेक साधन हैं । शरीरस्थित हर रोम वायु ग्रहण करता है । यदि रोम कूप अनावृत न हों एवं वायु का प्रवेश अवरुद्ध हो जाए तो त्वचा रुग्ण तथा विकृत हो जाती है । दूसरा स्थान मुख है । अनेक व्यक्ति अज्ञानवश या स्वभाववश श्वास-ग्रहण में मुख का प्रयोग करते हैं, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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