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सामर्थ्य और उसका विश्वास
श्वास : विश्वास
विश्वास मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि श्वास । श्वास के अभाव में देह धारण सम्भव नहीं होता, तो विश्वास के बिना जीवन-धारण । विश्वास का उद्गम आत्मा में होता है, अतः उसे एक अभौतिक शक्ति कहा जा सकता है। ऐस शक्ति, जो दुष्प्राप्य तो अवश्य है, परन्तु अप्राप्य बिलकुल नहीं । मूल बात यह है कि वह आत्मा की ही एक प्रसुप्त शक्ति है । उसे जगा लेना ही उसे उत्पन्न कर लेना या प्राप्त कर लेना है । जिसने उस शक्ति को जगा लिया, उसके लिए फिर असाध्य कुछ भी नहीं रह जाता । हमारे विश्वास की कमी का ही दूसरा नाम असाध्यता है । हमारी चेतना में अभी तक अनेकानेक अंध-कक्ष इसलिए विद्यमान हैं, क्योंकि हमारे विश्वास का प्रकाश वहां तक पहुंच नहीं पाया है ।
विश्वास स्वयं पर
विश्वास का तात्पर्य अपने आप पर विश्वास - आत्म-विश्वास से है । दूसरे पर किया जाने वाला विश्वास तो उसी का विस्तार मात्र होता है । आत्म-विश्वास के वृक्ष का मूल हृदय में गहरा जमा हुआ हो तभी उसकी शाखाएं दूर-दूर तक फैल सकती हैं। मूल के अभाव में शाखाओं के विस्तार की कल्पना की ही नहीं जा सकती। अपने पर जिसका विश्वास नहीं होता, वह निश्चित ही किसी अन्य पर विश्वास करने में झिझकेगा। अपने पर का अविश्वास ही वस्तुतः दूसरों का अविश्वास बन जाया करता है ।
शक्ति है विश्वास में
मनुष्य में सामर्थ्य की कमी नहीं है, परन्तु सामर्थ्य के विश्वास की कमी है। वह स्वयं को असमर्थ, प्रतिभाहीन और विफल तो बिना ही किसी झिझक के मान सकता है, परन्तु असीम सामर्थ्य, ज्ञान और आनन्द का स्वामी अनुभव करते उसे
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