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________________ ३८ चिन्तन के क्षितिज पर उन दोनों की आकृतियों का स्थूल निरीक्षण था, अतः भेदक रेखाएं पकड़ में नहीं आ पायीं । सूक्ष्म-निरीक्षण करने पर ही उनका पता चल पाया। भिन्न हैं उपादान और निमित्त सारांश यह है कि पत्तियों से लेकर मनुष्यों तक में एक ऐसी स्वभावगत पारस्परिक भिन्नता व्याप्त है कि जिसे न मिटाया ही जा सकता है और न नकारा ही जा सकता है । यह भिन्नता निष्कारण नहीं होती। प्रत्येक का अपना भिन्न उपादान होता है और भिन्न निमित्त, तो फिर क्षमताएं भी भिन्न ही होंगी । काल, क्षेत्र और प्रयोग आदि उस भिन्नता में अतिरिक्त वृद्धि कर देते हैं। इस प्रकार किन्हीं दो के पूर्णतः एक जैसे होने की सम्भावना ही नहीं रह जाती। मेरे जैसा केवल मैं ही होऊंगा और तुम्हारे जैसे केवल तुम ही । तुम्हारी विशिष्ट योग्यताएं मेरे में और मेरी विशिष्ट योग्यताएं तुम्हारे में पनप नहीं पायेंगी। ऐसी स्थिति में दूसरों की विशेषताओं या क्षमताओं के प्रति ईर्ष्या या डाह करने जैसी स्थिति नहीं रह जाती है। फिर भी यदि क्वचित् ईर्ष्या आदि की भावना पनपती है तो कहना चाहिए कि वह मनुष्य का व्यामोह ही है। उससे उक्त क्षमताओं के विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है। ईर्ष्या करने से तो यह अधिक स्वस्थ मार्ग होगा कि व्यक्ति स्वयं अपने में उस क्षमता के बीज को टटोले और फिर उसे विकसित करने में लग जाए। क्षमताओं की पहचान प्रगति का प्रथम सोपान अपनी क्षमताओं को पहचानना है तो दूसरा उसके विकासार्थ पूर्ण मनोयोग से जुट जाना। दूसरों के अनुकरण का उसमें तनिक भी स्थान नहीं हो सकता । अनुकरण तो एक ऐसा भटकाव है, जो मनुष्य के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास को रोकता है। उससे उसकी दृष्टि स्वयं अपने पर से भटककर दूसरे पर रहने की अभ्यस्त हो जाती है । फिर उसके लिए मैं क्या कर सकता हूं, यह आत्म-प्रश्न गौण हो जाता है और वह क्या करता है' यह मुख्य । बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, उसके बाद कैसे करता है, कब करता है, कितना करता है, आदि अनेक बातों के लिए भी वह दूसरे पर ही निर्भर हो जाता है। ऐसा करते समय वह यह भूल जाता है कि स्वतंत्र-चिन्तन की अपनी कामधेनु को वह स्वयं ही दूसरे के खूटे पर बांध रहा है। फल यह होता है कि दूसरे जैसा वह बन नहीं सकता और जैसा बन सकता है, वैसे सामर्थ्य का उपयोग नहीं कर पाता। व्यक्ति स्वयं है अपना सहायक तुम क्या बन सकते हो-वह स्वयं तुम्हें खोजना है और फिर पूर्ण निर्णय के साथ अपनी पूर्ण शक्ति को उसी में लगा देना है। इस कार्य में यदि कोई सर्वोत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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