________________
मनुष्य और उसकी डगमगाती निष्ठा ३५
लेकर विश्व संस्था तक में एक-दूसरे से अपने मनोभावों को छिपाने की वृत्ति चल रही है । बहुधा असत्य को सत्य का बाना पहनाकर उपस्थित करने की दक्षता में ही शक्ति का अपव्यय किया जा रहा है । मानो सत्य को ढक देना ही सबका लक्ष्य बना हुआ हो ! सत्य जो कि हर प्रकार की नीति का प्राणभूत तत्त्व है, आज राजनीति से तो एक प्रकार से बहिष्कृत ही कर दिया गया है। पर समाज नीति में भी उसके महत्त्व को समाप्त किया जा रहा है। तब फिर ऐसी प्राणहीन नीतियों से जो हल खोजे जा रहे हैं, वे सप्राण कहां तक हो सकते हैं ? उनमें सत्यता की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा हो, यह आवश्यक है, अन्यथा जीवन के हर क्षेत्र में केवल दिखावा ही दिखावा रह जाएगा, वास्तविकता खोजने पर भी मिलनी कठिन हो जाएगी।
अहिंसा के प्रति निष्ठा इसी प्रकार अहिंसा के प्रति निष्ठा नहीं रहने से भय की वृत्ति उत्पन्न होती है, जो कि पारिवारिक जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन तक में पारस्परिक अविश्वास पैदा कर देती है। मनुष्य किसी भी समस्या को उसके न्याय या अन्याय होने की दष्टि से न देखकर उसी दृष्टि से देखता है जिसमें कि वह अपने पक्ष का समर्थन और विपक्ष का खण्डन कर सके। जब भय की भावना तीव्र हो जाती है तब वह हिंसा का रूप भी ले लेती है। उसमें एक-दूसरे को समझाने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । वैसी स्थिति में हर समस्या को सुलझाने का एक ही तरीका माना जाने लगा है कि अपने विपक्ष को समाप्त ही कर दिया जाए। पर उससे समस्या सुलझने के स्थान पर अधिक ही उलझती देखी जाती है। व्यक्ति विशेष को समाप्त कर देने से वे विचार समाप्त नहीं हो जाते, जिनका कि वह प्रतिनिधित्व करता है, किन्तु तात्कालिक हल के प्रलोभन में बहुधा ऐसा किया जाता रहा है। राजनीति में तो इस प्रकार की हत्याएं यत्र-तत्र होती रहती हैं । लगता है कि मनुष्य अभी तक अपनी प्राचीन बर्बरता को भूल नहीं पाया है।
सत्य और अहिंसा का विश्वास सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में वैयक्तिक तथा सामूहिक हिंसा का प्रयोग मनूष्य जाति की प्रारम्भ, कालीन स्थितियों से लेकर आज तक अबाध गति से चलता रहा है, पर उसकी असफलता इसीसे सिद्ध है कि उसने सदैव पारस्परिक घणा को बढ़ावा देकर और अधिक हिंसा के ही बीज बोये हैं। मानव मानव की मानसिक दूरी को पाटने के स्थान पर उसने सदैव उसमें वृद्धि ही की है। आश्चर्य तो इस बात का है कि फिर भी अभी तक अहिंसा के प्रति मनुष्य के मन में जो विश्वास और श्रद्धा भाव उत्पन्न हो जाना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ है। अब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org