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________________ ३४ चिन्तन के क्षितिज पर देवत्व का प्राबल्य होता है तो किसी में पशुत्व का । इन दोनों में धूप और छाया की तरह शाश्वत संघर्ष चालू रहता है। हर युग के प्रेरक पुरुषों के लिए यह आवश्यक होता है कि मानव जाति के देवत्व का उद्दीपन करे और पशुत्व का शमन । जब-जब देवत्व उभरता है तब-तब समाज अपने गुण गौरव से पारिपाश्विक वातावरण को सुगन्धित कर देता है, किन्तु जब-जब पशुतत्व उभर आता है तब वही समाज नाना प्रकार के विग्रह और पारस्परिक विद्वेष से वातावरण को इतना दूषित बना देता है कि उसमें सांस लेना भी कठिन हो जाता है। चरित्र का दौभिक्ष्य समाज का वर्तमान वातावरण इसी ओर इंगित करता है कि इस समय पाशविक वृत्तियों का ही प्राबल्य होता जा रहा है । व्यक्ति अपने साधारण कर्त्तव्यों में भी बहुत असावधान होता चला जा रहा है । अनीतिमय आचरण स्वाभाविक बनता जा रहा है जबकि नीतिमय आचरण असम्भव-सा बन गया है । आज किसी को बेईमानी करते देखकर आश्चर्य नहीं होता किन्तु ईमानदारी करते देखकर आश्चर्य होता है। एक बार एक प्रवासी भाई मुझे बता रहे थे कि मोटर से यात्रा करते समय कानपुर के पास उनकी मोटर के पिछले भाग से बंधी हुई सामान की कोई गठरी गिर गयी और उन्हें उसका कोई पता भी न चला । उसी समय एक स्थानीय तांगेवाले ने उसे गिरते देख लिया था, उसने मोटर के नम्बर भी देख लिये। कानपुर में काफी तलाशने के बाद उसने वह गठरी हमें लौटायी। इस बात को सुनने वाले व्यक्ति ने मेरे पास उस तांगेवाले की ईमानदारी की प्रशंसा की। पास में बैठे हुए एक व्यक्ति ने तो आश्चर्याभिभूत होते हुए यहां तक कहा कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति भी मिल सकता है ? उसके कथन से मुझे लगा कि वर्तमान में बेईमानी का काम स्वाभाविक बन चुका है । जब कोई ईमानदारी का काम करता है तभी लोगों को आश्चर्य होता है मानो अनहोनी बात कर दी हो। जनता के इस दृष्टिकोण से पता लगता है कि समाज में सच्चरित्र का कितना बड़ा दौभिक्ष्य है और देव तत्त्व पर पशु तत्त्व कितना हावी हो रहा है ? सत्य के प्रति निष्ठा चारित्रिक पतन के मुख्य कारण हैं--सत्य और अहिंसा के प्रति निष्ठा का अभाव । सत्य के प्रति निष्ठा न रहने से मनुष्य में अपने आपकी हर वृत्ति को छिपाकर रखने की भावना पैदा होती है। सचाई को वस्तुत: आवरण की आवश्यकता नहीं होती; वह तो झूठ को ही होती है। खुले मुंह यदि वह सामने आ जाय तो उसे पहचान लिये जाने का सन्देह रहता है। इसीलिए वह आवरण या मुखावगुंठन के बिना बाहर नहीं आ सकती। यही कारण है कि छटपट व्यापार करने वालों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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