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________________ ३२ चिन्तन के क्षितिज पर सुधारने का अवसर मिलता है। नाटक के पात्र की तरह कृत्रिमता में नहीं, वास्तविकता में जीना है । अनासक्ति तीसरा सूत्र है - अनासक्त होकर जीना । साधारणतया मनुष्य विविध सम्बन्धों, संस्कारों और विकारों से घिरा हुआ रहता है । बाहर से ही नहीं, भीतर से भी घिरा हुआ होता है । वह किसी का मित्र होता है, तो किसी का शत्रु, किसी का प्रिय तो किसी का अप्रिय, इसी तरह किसी के प्रति उदार और किसी के प्रति अनुदार | कभी क्रोध में तो कभी अहंकार में । इन बाह्य और आन्तरिक घिरावों के कारण उसे कभी एकान्त चिन्तन का तथा सबसे दूर रहकर स्वयं को जानने एवं समझने का भी अवसर नहीं मिलता। इन बाह्य तथा आन्तरिक आच्छादनों में मनुष्य की आसक्ति इतनी गहरी हो जाती है कि उससे दूर हटकर जीने में उसे भय लगने लगता है । आवरण की वृत्ति पर विजय पाएं मन के आच्छादनों की आसक्ति तो बहुत गहराई की बात है, जबकि तन के आच्छादनों की आसक्ति को छोड़ पाना भी कठिन होता है । सौ-सौ विचार या विकल्प सामने आ खड़े होते हैं । सरदी लग जाने, अभाव ग्रस्त या अशिष्ट कहलाने से लेकर तन की विकृतियों या खामियों का सबके सामने आ जाने तक का भय सताने लगता है । मनुष्य जितना अपनी शारीरिक वास्तविकता से -- अनावृतता से कतराता है, उससे कहीं अधिक मानसिक वास्तविकता के उद्घाटन से कतराता है । विभिन्न प्रकार के आवरणों के साथ ही वह अपनी आन्तरिकता या बाह्यता संसार के सम्मुख प्रस्तुत करने का अभ्यस्त हो गया है । वस्त्रावरण रहते हुए हमारी अंगुलियां हमारे शरीर तक नहीं पहुंच पातीं, उसी तरह संस्कारों और विकारों के आवरण हमें स्वयं हमारे तक नहीं पहुंचने देते । इसलिए स्वयं को ढक लेने या आवृत कर लेने की इस वृत्ति पर विजय पाकर वास्तविक जीवन तक पहुंचा जा सकता है । जीवन के ये सूत्र अपने को अपनी गहराइयों तक खोदकर पा लेने में नितान्त सहायक होते हैं । 'नान्यः पन्था अयनाथ' - दूसरा कोई मार्ग नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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