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२८ चिन्तन के क्षितिज पर
में आने पर मैं स्वयं पहुंचा दूंगा। परन्तु उनके लिए ओछी जबान सुनने को तैयार नहीं हूं।'
सेठ अधिक उग्र हआ और भभका-'मूर्ख ! कमीने !! नालायक !!! मेरे रुपये मारकर बैठ गया और फिर सामने बोलता है, शर्म नहीं आती बेशर्म को?'
शेरसिंह बीच में ही बोल पड़ा-“रुपये दंगा, पर ये गालियां नहीं सहूंगा और न मार ही खाऊंगा । जबान सम्भाल कर बोलिये, नहीं तो झगड़ा हो जायेगा।"
सेठ ने उसकी तमतमाती हुई आकृति की ओर देखा तो सकपका गया। स्थिति को भांपते ही अपनी आवाज को मध्यम कर दिया और बात को नया मोड़ देते हुए कहा-'अरे भाई ! तुम तो बुरा मान गये। गाली कौन देता है ? मैं तो रुपयों के लिए कह रहा था कि जब हाथ में हों, तो शीघ्र दे देना।'
चरित्र विकास का अर्थ हार्द यह है कि विचारों की निर्बलता ही आदमी को 'घसीटा' बनाए हुए है । यदि वह मिट जाती है तो उसे शेरसिंह बनने में क्षण भर भी नहीं लगता । स्वत्व का अज्ञान ही बाधक बना हुआ है कि मनुष्य सदाचारी एवं नैतिक नहीं बन पा रहा है। विचारों की उक्त हीनता को दूर करने की महती आवश्यकता है। यह होने पर मनुष्य के सदाचारी बनने में कोई विम्लब नहीं होगा। सुधार की यह एक प्रक्रिया है कि सर्व प्रथम मनुष्य अपने सामर्थ्य का अनुभव करे । ऐसा करने से आत्मोद्बोध होता है और आत्म-विश्वास जागता है । तब फिर हर कार्य उसके लिए सुगम हो जाता है। अणुव्रत के माध्यम से कही जाने वाली चारित्रिक उत्थान की बात केवल चरित्रोत्थान की ही नहीं, वह विचारोत्थान की भी है। केवल चारित्रिक या वैचारिक उत्थान वास्तविक नहीं होता, वह केवल उत्थान का भ्रम ही होता है। दोनों का संतुलित व समन्वित उत्थान ही वास्तविक कहा जा सकता है। इसी को चरित्र-विकास कहते हैं।
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