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२६ चिन्तन के क्षितिज पर
बातों का उल्लेख दूर से आगत यात्रियों ने किया है तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि यह गर्वोक्ति नहीं, किन्तु वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन है । आज लोग इसे इसलिए अतिशयोक्ति या गर्वोक्ति मान बैठते हैं, क्योंकि वर्तमान की भारतीय जीवन-पद्धति अत्यन्त अस्त-व्यस्त हो चुकी है।
आज की स्थिति पूर्व स्थिति से आज की स्थिति सर्वथा भिन्न प्रतीत होती है। आज समाज में सदाचार के प्रति उतनी जागरूकता नहीं है, जितनी पहले थी । दुराचार पर पहले की ज्यों आज निर्भीक अंगुली नहीं उठाई जा सकती, क्योंकि प्रायः सर्वत्र उसके भी समर्थक मिलने लगे हैं। आदेशों के प्राचीन मानदंड बदल गये हैं तथा बदलते जा रहे हैं । सत्य-निष्ठा के चरण डगमगाए हैं और स्खलित भी हुए हैं। इस स्खलना के अनेक कारणों में से एक कारण भारत की परतंत्रता भी बनी है। सैकड़ों वर्षों तक भारतीय जनता दूसरों के शासन में रही । फलस्वरूप वह अपनी संस्कृति को भूलने लगी और उसमें चारित्रिक ह्रास होने लगा । शताब्दियों के पश्चात् जनता ने अनेक बलिदानों के आधार पर स्वतंत्रता प्राप्त की है। अब उसे अपनी संस्कृति और चरित्रबल को पुनः सुधारना है, उन्हें विकासोन्मुख करना है। संस्कृति को जनमानस में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए सदाचार की अवरुद्ध सुर-सरिता को प्रवाहित करना होगा, जनता के सोये पौरुष को जगाकर उसे कर्तव्य-बोध देना होगा।
घसीटा बनाम शेर सिंह समाज में सदाचार की प्रतिष्ठा कोई कठिन कार्य नहीं है। उसमें व्यक्ति को जरासा अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ता है। वह जब स्वरूप और स्व-सामर्थ्य को पहचान लेता है तो उसके लिए कोई कार्य कठिन नहीं रह जाता । स्व-सामर्थ्य से परिचित व्यक्ति दीन-हीन नहीं रहता, वह सबल और सर्वक्षम बन जाता है। एक कहानी इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर देगी।
एक साहूकार से एक व्यक्ति ने कुछ ऋण लिया। काफी समय बीत गया, वह उसे चुका नहीं सका । साहूकार जब-जब उसे देखता, कुछ खरी-खोटी सुना देता। एक बार दोनों अचानक मार्ग में मिल गये । साहूकार ने आंखें तरेरकर कहा--- 'क्यों बे ! इस बार ब्याज के रुपये क्यों नहीं भरे ? मालूम पड़ता है, तेरी नीयत खराब हो गई है।'
विनम्र भाव से झुकते हुए उस व्यक्ति ने कहा-'सरकार, इस बार कुछ व्यवस्था नहीं बैठ पाई है। अगले महीने एक साथ ही दे जाऊंगा।'
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