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चरित्र-विकास २५
प्रक्रिया है । इसका अवरोध उन्नति का अवरोध होता है, वस्तुत: वह जीवन का ही अवरोध होता है।
वास्तविक दृष्टिकोण कुछ लोगों का चिन्तन है कि इस प्रक्रिया से कुछ सुधार हो सकता है, परन्तु दो-चार या फिर दस-बीस व्यक्तियों के सुधर जाने से कोई समाज थोड़े ही सुधर जाता है ? समाज के सुधरे बिना उन कुछ व्यक्तियों से क्या होना-जाना है? करोड़ों लोग जब विपरीत मार्ग पर चल रहे हैं, तब थोड़े से लोग ठीक मार्ग पर चलते हुए भी दुःख ही उठा सकते हैं । परन्तु यह चिन्तन परिपूर्ण नहीं है, क्योंकि समाज़ कोई वास्तविक वस्तु नहीं है । वह तो व्यक्तियों की ही सामष्टिक अवस्था का नाम है, अतः व्यक्ति के सुधरे बिना वह सुधर ही नहीं सकता। सन्मार्ग पर चलते हुए यदि कुछ व्यक्तियों को कष्ट उठाने पड़ते हैं तो वे उन्हें सहर्ष उठाने चाहिए। वह उनकी कसौटी मानी जायेगी। उससे उनका व्यक्तित्व और अधिक निखरेगा तथा अन्य व्यक्तियों को उससे मार्ग-दर्शन एवं साहस मिलेगा। वास्तविक दृष्टिकोण में व्यक्ति-सुधार ही विश्व-सुधार की भूमिका है। भूमि के एक-एक खण्ड को उपजाऊ बनाया जाए, तभी बहुत सारा क्षेत्र उपज के योग्य बनता है। उस समय यह सोचकर कार्यविरत हो जाना उचित नहीं कि सारी भूमि तो उपजाऊ बनने से रही, फिर इस थोड़ी-सी को उपजाऊ बनाने से क्या लाभ? ऐसा करने वाले स्वयं तो भूखों मरते ही हैं, समाज को भी भूखा मार देते हैं।
गर्वोक्ति नहीं, वस्तुस्थिति भारत की नैतिकता पूर्व काल में बहुत ऊंची रही है। यह हम विदेशी यात्रियों द्वारा भारत के विषय में लिखित पुस्तकों से भलीभांति जान सकते हैं। उन्होंने अपने यात्रा-संस्मरणों में लिखा है कि भारत एक महान् देश है। उसका चरित्र बहुत उज्ज्वल है । वहां के लोग चोरी नहीं करते । समान से भरी दुकानों पर भी ताला लगाने की कभी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि कोई किसी की वस्तु को नहीं उठाता। ये उल्लेख दूर से आने वाले उन यात्रियों ने किये हैं, जो वर्षों तक भारत मे रहकर अपने देश में लौट गये थे। अपनी उस महत्ता से स्वयं भारतवासी भी कोई अपरिचित नहीं थे। वे उसे अच्छी तरह से जानते थे। तभी तो स्मृतिकार महर्षि मनु ने कहा
एतद्देश प्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्, पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ यदि कोई चरित्र की शिक्षा लेना चाहे तो वह भारत के मनीषियों से ले । इस उक्ति से बहुत लोगों को लग सकता है कि यह तो गर्वोक्ति है, किन्तु जब इन्हीं
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