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चरित्र-विकास
चरित्र क्या है ? संसार में यदि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ है तो वह चरित्र-बल है। चरित्र का विकास ही देश की गरिमा को व्यक्त करता है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि चरित्रविकास के बिना ही किसी समाज तथा देश ने कभी कोई महत्ता अर्जित की हो। चरित्र, सदाचार, नैतिकता या प्रामाणिकता ही वह महान् आधार है, जिस पर कोई भी विकास खड़ा होता है। सद्विचार और सदाचार का समन्वित रूप ही चरित्र होता है । सद्विचार-शून्य अथवा सदाचार-शून्य व्यक्ति की चरित्रवत्ता पूर्ण नहीं कही जा सकती। वस्तुतः वह चरित्रवत्ता होती ही नहीं।
शरीर के ऊध्वांग और अधोंग की ही तरह चरित्र के ये परस्परापेक्षी दो अंग कहे जा सकते हैं। सद्विचार को चरित्र का मस्तिष्क कहा जाए तो सदाचार को पैर कह सकते हैं। किसी भी एक के अभाव में दूसरे की मौलिकता नहीं रह जाती । विकलांग की तरह वे अधूरे और निरुपयोगी हो जाते हैं।
प्रथमावरत्व 'आचारः प्रथमो धर्मः' इस आर्ष वाक्य में आचार को मनुष्य का प्रथम धर्म कहा गया है। इसी प्रकार जैनागमों में 'आयारे निच्च पंडिया' इस वाक्य में यही जताया है कि साधु पुरुष वही है, जो आचार में निरन्तर जागरूक होता है । किन्तु इन सब कथनों का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह विचार-रिक्त होता है । मूल बात तो यह है कि आचार के महल के लिए विचार की नींव सदैव अपेक्षित रही है। बिना नींव का महल टिक नहीं सकता। हर आचार को विचार के प्रकाश में ही आगे बढ़ने का मार्ग मिलता है तो हर विचार को आचार की अग्नि-परीक्षा देने पर ही मान्यता प्राप्त होती है। इनमें एक के बाद दूसरे का महत्त्व चक्राकार कहा जा सकता है। किसी एक को प्रथम या अवर नहीं कहा जा सकता। अपेक्षा-भेद से दोनों ही प्रथम या दोनों ही अवर होते हैं ।
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