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________________ विकास के पथ पर १६ अपने पर विश्वास श्रद्धा से तात्पर्य है—विश्वास, अपने आप पर विश्वास तथा अपने विकास की अनन्त सम्भावनाओं पर विश्वास । इसके अभाव में विकास के लिए कुछ सोचा ही नहीं जा सकता। आत्म-विश्वास के साथ आत्म-विकास का सीधा सम्बन्ध है। जितना गहरा विश्वास होगा, विकास उतना ही तेज होगा। आत्म-विश्वास के डगमगाते चरणों से आत्म-विकास के दुर्जेय शिखरों पर आरोहण नहीं किया जा सकता । आत्म-विकास की बात तो बहुत दूर है, सामान्य कार्यों की सफलता भी उसके अभाव में असम्भव हो जाती है । आपने कभी तार पर साइकिल दौड़ाते हुए व्यक्ति को देखा हो, तो अवश्य ही जानते होंगे कि वह कितनी सफाई से दौड़ता हुआ निकल जाता है । इसके विरुद्ध ऐसा दृश्य भी बहुधा देखने को मिल जाता है, जब सीधी और चौड़ी सड़क पर भी व्यक्ति लड़खड़ाकर साइकिल से गिर पड़ता है। प्रथम आत्म-विश्वास का और द्वितीय उसके अभाव का उदाहरण कहा जा सकता ___ मैं किसी अन्य व्यक्ति पर विश्वास करने के विषय में नहीं कह रहा हूं, स्वयं अपने पर विश्वास करने को कह रहा हूं । अन्य पर विश्वास करना द्वितीय कोटि का है। प्रथम कोटि का कार्य तो स्वयं पर विश्वास करना है। अन्य पर विश्वास करना सरल है, अपने पर कठिन । इसका कारण है, अन्य पर विश्वास करना हो, तब केवल मान लेने से कार्य चल सकता है, परन्तु अपने पर विश्वास करना हो, तब मानने से बिलकुल कार्य नहीं चलता । वहां तो पहले जान लेना होता है। मान लेना बहुत सरल है, जान लेना कठिन । हम भयवश दुष्ट व्यक्ति को भी सज्जन मान सकते हैं, वाणी से स्वीकार भी कर सकते हैं, फिर भी अन्तरंग में जानते वैसा ही हैं, जैसा कि वह है। उसकी सज्जनता पर हमें कोई विश्वास नहीं हो जाता । मानने में औपचारिकता चल सकती है, जानने में नहीं। उसका सम्बन्ध सीधा वास्तविकता से ही होता है । इसीलिए आत्म-विश्वास आज की परिस्थितियों में कठिन कार्य हो गया है । उसके अभाव में आत्म-विकास का द्वार खुल ही नहीं सकता । पूर्ण चेतना के महल में प्रविष्ट होने के लिए आवश्यक है कि आत्म-विकास का द्वार खुले और वह तब खुलता है, जबकि व्यक्ति आत्म-विश्वासी हो, श्रद्धाशील हो। खतरा उठाने का साहस दूसरा गुण है साहस । नयी तथा अपरिचित स्थितियों में प्रवेश साहस के बल पर ही किया जा सकता है । साहसहीन व्यक्ति जैसा है, जहां है, उसी से सन्तुष्ट रह लेता है, पर साहसी अपने विकास के नये आयामों में प्रविष्ट होता है, मार्ग की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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