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________________ विकास के पथ पर प्रस्फोट आवश्यक हम चेतन हैं, परन्तु हमारी चेतना पूर्ण विकास की स्थिति में नहीं है। वह अनन्तानन्त काल से पूर्वार्जित कर्मों तथा सस्कारों से आवृत है । उसे अनावृत करना है । आवृत से अनावृत की ओर सतत गति करने का नाम ही विकास है। बीज वक्ष बनता है, कली फूल बनती है और मंजरी फल का रूप ग्रहण करती है, तो यह सब विकास के ही कारण फलित होता है। हमें विकास का मार्ग खोजना है। दूसरे की खोज हमारे काम आने वाली नहीं है, क्योंकि हमारा विकास बाहर से आने वाला नहीं है, वह तो हमारे ही अन्दर घटित होने वाली एक प्रक्रिया है। प्रत्येक बीज को स्वयं के प्रस्फोट में से गुजरकर ही वृक्ष बनना होता है, प्रत्येक कली को स्वयं फूटकर ही फूल बनना पड़ता है और प्रत्येक मंजरी को स्वयं ही रूपान्तरों की मंजिल तय करके फल बनना होता है। दूसरे बीज, दूसरी कली और दूसरी मंजरी की विकास प्रक्रिया उसके किसी काम नहीं आती। पिता का धन या ऋण तो पुत्र को प्राप्त हो सकता है, पर उसका विकास उसे नहीं मिल सकता। उसे तो स्वयं को प्रस्फुटित करके ही पाया जा सकता है। तीन गुण विकास का मार्ग बहत लम्बा होता है। पूर्णता की मंजिल तक पहुंचने से पूर्व विकास-क्रम की अनेक प्रक्रियाओं में से गुजरना पड़ता है। मार्गस्थ घाटियों की तरह अनेक घुमावों तथा अनेक उतार-चढ़ावों को पार करना होता है। भटक जाने का भय भी बना ही रहता है। ऐसी स्थिति में विकास-मार्ग पर चरण-न्यास करने वाले के लिए तीन गुण विशेष सहायक होते हैं--- १. श्रद्धा २. साहस ३. धैर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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