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१६ चिन्तन के क्षितिज पर
न्याय प्रक्रिया बदले
न्यायालय में बहुत बार इसी प्रकार के बनावटी तथ्य प्रस्तुत होते रहते हैं । उनके आधार पर अन्यायी साफ बच जाते हैं और भोले पंछी फंस जाते हैं । मेरे इस कथन
यह तात्पर्य नहीं है कि इसमें न्यायाधीशों का ही दोष है, उन्हें दोषी इसलिए नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वे जन-मान्य एक संविधान के आधार पर वैसा करने को बाध्य होते हैं । फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि हर संविधान मानव-जाति के लाभ और उन्नति के लिए होता है । जब वह युगानुकूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्षम होने लगता है तब उसमें यथावश्यक परिवर्तन किया जाना आवश्यक होता ही है । लगता है, न्याय- प्रक्रिया को बदलना आज न्याय को सर्वसुलभ बनाने के लिए नितान्त अपेक्षित है ।
अपराध का कारण
न्याय की चर्चा करते समय उन बिंदुओं पर भी सोचना आवश्यक है, जिनमें बाध्य होकर किसी व्यक्ति को दोष करना पड़ता है । व्यक्ति के दोषी बनने का सबसे बड़ा कारण गरीबी है। एक युवक ने कुछ दोष किया। उस पर मुकद्दमा चला । अभियुक्त ने न्यायालय में अपना अपराध स्वीकार कर लिया । उसने अपनी विवशता व्यक्त करते हुए बतलाया -- उसका परिवार तीन दिनों से बिलकुल भूखा था इसलिए उसने अमुक दुकान से कुछ डबल रोटियां चुराई थीं ।
न्यायाधीश ने अपराधी को अर्थ-दण्ड दिया और तत्काल दंड की अर्थ-राशि अपनी जेब से निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा-यह रही तुम्हारी दण्ड - राशि | साथ ही न्यायाधीश ने वहां उपस्थित सभी व्यक्तियों को अपराधी बतलाते हुए कहा -- केवल अभियुक्त ही नहीं, हम सब भी अपराधी हैं। क्योंकि हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां व्यक्ति को भोजन के लिए चोरी करनी पड़ती है ।
सामाजिक न्याय : विकास की दिशा
न्याय विषयक चिंतन करते समय हमें उन व्यक्तियों की पीड़ा को भी अच्छी तरह से समझना होगा, जो शोषित हैं, पीड़ित हैं, अधिकार- विहीन हैं और विवशता से पतन के गर्त में फंसे हुए हैं । ऐसे ही कुछ बिन्दु हैं, जहां सामाजिक न्याय का ह्रास अपनी चरम सीमा तक पहुंचा हुआ प्रतीत होता है। अपेक्षा है--उनका मुख विकास की दिशा में मोड़ दिया जाए । स्वतन्त्रता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी अभी तक उसका मुख उद्दिष्ट दिशा की ओर मुड़ा नहीं है। उसके लिए यों तो पूरा समाज ही दोषी माना जाएगा परन्तु मुख्यतः उसका दोष उन पर है, जो अधिकारयुक्त उच्चासनों पर स्थित हैं । चींटी की चाल से चलने वाला सुधार कब मंजिल तक
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