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________________ १४ चिन्तन के क्षितिज पर अशक्त हो चुके हैं कि वे कुछ करने की कल्पना तक भी नहीं कर सकते । वे कार्यान्वयन का साहस कैसे कर सकते हैं ? उनसे यदि सामाजिक न्याय की प्रथम ईंट बनने की आशा करें तो सारा चिंतन व्यर्थ जाएगा। बहुत बार देखा गया है कि निम्न जाति का आदमी सार्वजनिक कार्यक्रमों में आगे आकर बड़े आदमियों के बीच बैठने तक का साहस नहीं कर सकता। आता भी है तो कहीं दूर कोने में ही बैठ जाता है । वरिष्ठ व्यक्तियों के संग रहने की तो बात बहुत दूर, वह उनके पास भी नहीं जा सकता । बाधा है अस्पृश्यता कानून कहता है कि अस्पृश्यता का व्यवहार दंडनीय है, पर सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता यथावत् जमी हुई है। अस्पृश्यता की जो अनेक दुःखद घटनायें मैंने अपनी आंखों से देखी हैं, उनमें से एक घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ । एक व्यक्ति तालाब के पास घड़ा लिए हुए बैठा था। वह तालाब से पानी ले जाने वालों से मिन्नतें करके पानी मांग रहा था । परन्तु कोई उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था । मैंने स्थिति को समझने के लिए व्यक्ति से पूछा तो उसने बताया कि यह व्यक्ति अस्पृश्य जाति का है । अतः तालाब से पानी लेने के योग्य नहीं है । जो व्यक्ति यहां से पानी ले जा रहे हैं, उनसे ही यह पानी की याचना करता है । यदि उनमें से किसी के मन में दया आ जाएगी तो वह इसके बर्तन को भर देगा। मैंने सोचा, कौन व्यक्ति इसके बर्तन को भर देगा ? किसके मन में करुणा आ जाएगी ? मेरे देखते-देखते बीस व्यक्ति पार हो गए। वह दया तो किसी के मन में नहीं आई । अन्य आ वालों में से किसी के मन में दया आ भी जाएगी तो उस जाति का यह एक ही व्यक्ति तो नहीं है । इस जैसे अन्य भी हजारों व्यक्ति पानी को तरस रहे होंगे ? इस प्रकार का व्यवहार कर क्या समाज उसके साथ न्याय करता है ? यदि इस तरह का शोषित व्यक्ति न्यायालय की शरण में जाता है तो न्याय की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में कहीं का कहीं भटक जाता है । विलंबित और महंगा न्याय न्याय की पद्धति क्रमशः विकसित हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं । पर अब वह विकास ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि न्याय एक गोरख धंधा बन गया है । न्यायालयों में प्रकरण चालू रखने के बाद न्याय मांगने वाला गौण हो जाता है, फिर तो न्याय की अपनी प्रक्रिया ही प्रमुख रहती है । सिखा - सिखाकर दिलाई गई गवाहियां तथा वकीलों की लम्बी बहसें न्याय को एक ऐसा विकट जंगल बना डालती हैं, जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। भटकते-भटकते जब वह उससे बाहर आता है तो बहधा क्षत-विक्षत होकर ही आता है। लम्बा समय प्रचर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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