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सामाजिक न्याय का विकास १३
समाज और सरकार न्याय अपने क्रम से चलता है, घटनायें अपने क्रम से होती हैं। उस स्थिति में सोचना यह है कि उसमें क्या कुछ सुधार किया जा सकता है ? जो भी सुधार अपेक्षित है, उसके लिए एक प्रकार का स्वस्थ वातावरण बनाया जाना चाहिए। सरकार सब कुछ कर देगी, यह सोचना गलत है। सरकार की अपेक्षा समाज का महत्त्व अधिक होता है। समाज जिस कार्य के लिए तैयार नहीं होता, सरकार उसके लिए कुछ नहीं कर सकती, परन्तु समाज जिस कार्य को चाहता हो, सरकार को वह उसके लिए बाध्य कर सकता है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार कुछ भी नहीं कर सकती। समाज की अपनी सीमा है, सरकार की अपनी ! दोनों एक-दूसरे की पूरक बनकर सर्वोत्कृष्ट स्थिति में होती हैं। दोनों को अपनी क्षमताओं का उपयोग एक-दूसरे के हित में करना चाहिए। वह समाज या वह सरकार क्या कार्य कर सकती है, जिनका परस्पर एक-दूसरे को दबाने, नीचा दिखाने या मिटाने का खेल ही समाप्त नहीं होता। मनुष्यों की बहुत बड़ी कमजोरियों में से एक यह है कि वह अपना कोई हित न होने पर भी दूसरे का अहित कर डालता है।
दूसरा आनंद क्यों भोगे ? किसी गांव में एक कुबड़ी बुढ़िया रहती थी। बच्चे उसका बहुत मजाक उड़ाया करते । इससे वह बहुत क्रुद्ध एवं चिढ़ी हुई थी। एक दिन मन्दिर में पूजा करने गई तो देवी प्रसन्न होकर बोली-“बुढ़िया ! वरदान मांग ले।" बुढ़िया ने कहा"जब आप इतनी प्रसन्न हैं तो यही वरदान दीजिए कि गांव वाले सारे कुबड़े हो जाएं।" देवी बोली- "अरे, यह क्या वरदान मांगा? इससे तुझे क्या फायदा है ?” बुढ़िया ने कहा-"मेरे फायदे की चिन्ता न करें। यदि आप को वरदान ही देना है तो यही दीजिए ताकि गांव वालों को पता लग जाए कि कुबड़ा होना कितना कष्टकारी है।" आज सम्पूर्ण समाज की स्थिति बुढ़िया जैसी हो गई है। जो यह मानकर चलता है कि मैं तो दुःख में हूं सो हूं, पर अन्य व्यक्ति आनन्द क्यों भोग रहे हैं ? जिस समाज के व्यक्तियों में ऐसे संकुचित एवं स्वार्थ-परक विचार होंगे, उनसे समता और न्याय की आशा करना कठिन है। विशेषकर उन व्यक्तियों से तो और भी कठिन है, जो बलात् समाज पर छाए हुए हैं और अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सभी अस्त्रों का उपयोग कर लेते हैं।
सामाजिक न्याय : प्रथम ईंट न्याय के विषय में यदि यह सोचा जाता है कि वह नीचे वालों की ओर से विकसित होता हुआ ऊपर तक पहुंचेगा तो यह कभी होने वाला नहीं है । नीचे वाले इतने
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