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सामाजिक न्याय का विकास
मात्स्य न्याय
समाज एक समुद्र है और समुद्र के लिए एक कहावत चली आ रही है कि वहां 'मात्स्य न्याय: प्रवर्तते' अर्थात् बड़े मच्छ छोटे मच्छों को खा जाते हैं । मानव समाज के इस समुद्र में भी प्रायः यही न्याय चलता है । लगता है मानो इसी न्याय के आधार पर जीवन का सारा ढांचा खड़ा है । बहुत प्राचीन काल से यही क्रम चलता आया है कि जो शक्तिशाली, सत्तावान्, धन-कुबेर या प्रतिष्ठित होता है, वह दूसरों को खा जाता है, धूलिसात् कर देता है । कमजोर या निर्धन होना ही उसके लिए अभिशाप बन जाता है। पशु जगत् और वनस्पति जगत् में भी वे जातियां समाप्त या समाप्तप्राय हो गई हैं, जो अपने प्रतिद्वन्द्वी से टक्कर नहीं ले
कीं । इसलिए यहां बलवान्, सत्तावान् और धनवान् बनना परम आवश्यक बन गया है । जीवन की सारी भाग-दौड़ इसी मान्यता पर चलती है कि दूसरे को दबाकर अपनी उन्नति का आधार प्रशस्त किया जाए ।
प्रश्न है सामाजिक न्याय का
उपर्युक्त पृष्ठभूमि के पश्चात् भी जो सामाजिक न्याय की बात की जाती है, उसके पीछे एक ही कारण है कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है । अपने विवेक और बुद्धि के बल पर उसने प्रकृति पर विजय पाई है। उसका वह क्रम आज भी तीव्र तसे चालू है । प्रकृति की अनेक घाटियां पार करते तथा उन्नति के अनेक आयाम खोल लेने के बाद भी सोचने के लिए यह प्रश्न रह ही जाता है कि सामाजिक विषमताओं एवं समस्याओं को हल करने के लिए मनुष्य ने अभी तक उतना नहीं सोचा है जितना कि उसे सोचना चाहिए। यदि ऐसा किया जाता तो सामाजिक न्याय के आधार पर प्रत्येक मनुष्य को अपेक्षाकृत अधिक उन्नत, पवित्र एवं विकसित बनाया जा सकता था। आज की यह प्रबलतम आवश्यकता है कि सामाजिक न्याय के विषय में अधिक गम्भीरता से प्रयास किए जाएं ।
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