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२०४ चिन्तन के क्षितिज पर
व्याकरण का अध्ययन किया। जयाचार्य के उस सम्पर्क ने उनको एक अच्छा श्रद्धाशील श्रावक बना दिया। कालान्तर में उनका पूरा घर ही श्रद्धाशील बन गया । गटूलालजी श्रावक बन गये थे। इसी दृष्टि से शायद मघवा गणी ने जयसुजस की रचना करते समय उन्हें अध्ययनकाल' में भी श्रावक कह दिया है। वे कहते हैं 'सीखतो व्याकरण एक श्रावक' (ज० सु० ३३/५)।
गटूलालजी के पुत्र सूवालालजी और पौत्र गंगालालजी (गंगूजी) भी अच्छे श्रद्धाशील श्रावक थे।
२१. चन्दनमलजी दूगड़ चन्दनमलजी बीदासर से सदासुखजी दूगड़ के गोद आये थे। अच्छे तत्त्वज्ञ थे। चर्चा वार्ता में भी रुचि से भाग लेते थे। समाज के कार्यों में भी बड़ी रुचि रखते थे। श्री जैन श्वे० तेरापंथी सभा के अनेक वर्षों तक सभापति व कोषाध्यक्ष पद पर रहे। सं० २००६ के आचार्यश्री तुलसी के चातुर्मास व मर्यादा महोत्सव तक 'चन्दन महल' आचार्यश्री के प्रवास स्थल के पास ही एक मकान में रहे और पूरी सेवा दी। इनका मकान भी साधु-साध्वियों के चातुर्मास स्थल (मिलाप भवन) के सामने ही है । एक बार मिलाप भवन से मकान में आते वक्त एक साइकिल सवार ने टक्कर मार दी जिससे चूलिये की हड्डी टूट गई। इसके बाद चलना-फिरना नहीं हुआ। काफी लम्बे समय अस्वस्थ रहने के बाद सं० २०४४ में दिवंगत हो गये । इनके सुपुत्र श्री धनराजजी भी अच्छे धार्मिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे। सं० २०४६ में दिवंगत हो गये। २२. मोतीलालजी बांठिया मोतीलालजी बांठिया बीजराजजी बांठिया के पौत्र और सोभागमलजी बांठिया के पुत्र थे । सूरजमलजी बांठिया के कोई पुत्र नहीं था अत: मोतीलालजी को गोद लिया था। उनकी धर्म में अच्छी रुचि थी। अपने ससुराल जाते तब अपने काका श्वसुर श्री तखतमलजी फूलफगर के यहां ठहरते थे। तखतमलजी अच्छे तत्त्वज्ञ थे। मोतीलालजी इनसे बराबर धारणा करते रहते थे। अनेक थोकड़े कण्ठस्थ किये व उन्हें खुलासा कर हृदयंगम किए । गांगेयजी के भांगे भी उन्हें आते थे। उनकी ४ पुत्रियां दीक्षित हैं । साध्वी श्री कमलूजी सं० १९८३, साध्वीश्री सुरजकंवरजी सं० १९८६ में श्रीमद् कालूगणी से दीक्षित हुए। साध्वीश्री पानकंवरजी व रायकंवरजी सं० १९६६ में आचार्यश्री तुलसी से दीक्षित हुए। उनकी पत्नी
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