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________________ जयपुर के प्रमुख तेरापंथी श्रावक हरचन्दलाल जी सींधड़ जयपूर आचार्य भिक्षु के समय में ही तेरापंथ का विहार क्षेत्र बन गया था। स्वामीजी यहां सं० १८४८ के' फाल्गुल मास में पधारे और २२ रात बिराजे । प्रतिदिन बड़े सरस और प्रेरक व्याख्यान हुआ करते थे। स्वामीजी के द्वारा सम्यक्त्व और चारित्र के विषय में किए गए विवेचनों ने यहां के धार्मिक क्षेत्र को ऊहापोह से भर दिया। लोगों के मुख से सुन सुनकर युवक हरचन्दलालजी स्वामीजी के प्रति आकृष्ट हुए और उनके सम्पर्क में आये । एक दिन आये तो फिर मानो निरन्तर आने के लिए बंध ही गए। बातचीत की, तत्त्व को समझा और फिर गुरु धारणा कर ली। उनके पिता किसनचन्द जी उस समय के प्रसिद्ध जौहरी गिने जाते थे। धार्मिक दृष्टि से मन्दिर मार्गी थे। हरचन्दलालजी जवाहरात के काम में दक्ष हो चके थे वे पिता के बड़े विनीत थे अतः उन्होंने स्वामीजी से कहा- मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण पिताजी को किसी प्रकार का खेद हो अत: आप मेरा नाम प्रकट मत करना । स्वामीजी के नाम प्रकट करने का कोई प्रयोजन नहीं था, परन्तु उनके साथ आने वालों से बात छिपी नहीं थी। स्वामीजी के उस पदार्पण के लगभग २० वर्ष पश्चात् आचार्य भारमलजी १. ऋषिराय सुजस ६/दो० ३ _ 'भिखू प्रथम पधारिया, सैंतालिसे उनमान । रात्रि बावीस रै आसरे, रह्या मुनी गुणखान॥ उपर्युक्त पद के अनुसार स्वामीजी का जयपुर प्रवास सं० १८४७ में हुआ, परन्तु लाडनूं स्थित शासन के पुस्तक भण्डार में युवाचार्य भारमल जी द्वारा लिखित साधु आचारी की प्रति है। उसकी पूर्ति जयपुर में सं० १८४८ फाल्गून शुक्ला १५ गुरुवार को हुई, ऐसा लिखा है। उससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि स्वामीजी सवाई माधोपुर चातुर्मास करने के पश्चात् फाल्गुन में जयपुर पधारे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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