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१६० चिन्तन के क्षितिज पर
४. सती साध्वी प्रमुखा जेठांजी
साध्वी प्रमुखा जेठांजी सेवा और तपस्या की प्रतिमूर्ति थीं । अठारह वर्ष की अवस्था में दीक्षित होकर वे सेवा में लग गईं। छोटे-बड़े का प्रश्न नहीं, रोगी या नीरोग का भी प्रश्न नहीं। किसी का भी कार्य पाकर वे उसमें ऐसी तत्परता से लगती, मानो वह स्वयं उन्हीं का कार्य हो । साध्वी प्रमुखा बनने के बाद भी वे सेवा - भावना से प्रचालित रहीं । वे एक उच्च कोटि की तपस्विनी भी थीं । बाईस दिनों का निर्जल उपवास करके उन्होंने तेरापंथ में जो कीर्तिमान स्थापित किया, वह आज भी विद्यमान है। उनका जीवन-काल सं० १६०१ से सं० १९८१ तक
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का था ।
५. सती रूपांजी
सती रूपांजी रावलिया (मेवाड़) की थीं। दीक्षा की भावना होने पर पति आदि नाना प्रकार से कष्ट दिये । विचलित नहीं कर सके तब उन्हें 'खोड़े' में डाल दिया गया । 'खोड़ा' काष्ठ-निर्मित बंधन होता था । उसके छेद में पैर डालकर ताला लगा देने पर व्यक्ति कहीं जा नहीं सकता था । रूपांजी उस कैद में भी सारे दिन भजन - स्तवन गातीं और स्वामीजी के नाम का जप करतीं । प्रकृति के किसी गूढ चमत्कार से इक्कीसवें दिन 'खोड़ा' स्वयं ही टूट गया । जनता में बात फैली । उदयपुर के महाराणा तक भी पहुंची। उन्होंने परिवार वालों को उपालंभ पूर्वक कहलाया कि ऐसे भक्तजनों को कष्ट न पहुंचाया जाए । आज्ञा मिलने पर सं० १८५२ में दीक्षा हुई पर पांच वर्ष बाद ही वे दिवंगत हो गईं ।
६. सती दीपांजी
थीं।
सती दीपांजी जोजावर ( मारवाड़) की थीं। सं० १८७२ में दीक्षित हुई । अत्यंत निर्भीक, विदुषी एवं शास्त्रार्थ - निपुण एक बार लावा सरदारगढ़ में अन्य संप्रदाय के मुनि मानजी ने उन्हें ठाकुर साहब की मध्यस्थता में गढ़ में शास्त्रार्थ करने के लिए आह्वान किया । दीपांजी ने उसे स्वीकार कर सभा में उन्हें पराजय दी ।
एक बार जंगल में एक लुटेरे ने तलवार के बल पर उनके वस्त्रपात्र नीचे रखवा लिये । पर ज्यों ही वह उन्हें समेटकर बांधने लगा, दीपांजी ने उसकी तलवार उठा ली। फिर वह उसे तभी मिली जब साध्वी- मंडल अगले गांव पहुंच
गया ।
एक बार जंगल में कई लुटेरों ने उन्हें घेर लिया । वस्त्र पात्र रखवा लिये ।
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