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शक्ति-स्वरूपा जैन साध्वियां १८६
परिवार वाले दीक्षा देने के समर्थक नहीं थे। उन्होंने ऐसा सहज उपाय खोजा कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। उन्होंने नवलबाई को उनके पीहर भेज दिया। पीहर वाले स्थानकवासी थे और तेरापंथ से विरोध रखते थे। उन्हें सारी स्थिति से अवगत भी कर दिया ताकि वे साधु-साध्वियों के सम्पर्क से उन्हें बचा सकें। वे पीहर आई तभी से माता-पिता विशेष सावधानी रखने लगे।
किवाड गिर पड़े नवल बाई प्राय: घर में ही सामायिक आदि धर्म-क्रियाएं कर लेतीं। तेरापंथी साधु साध्वियों का उस समय तक उधर के क्षेत्रों में कम ही आना होता था। पर संयोग तो संयोग ही होता है। उस वर्ष साध्वियों का एक सिंघाड़ा वहां आ गया। सावधान माता-पिता ने नवल बाई को रोके रखने के लिए कमरे के किंवाड़ जड़ दिये।
बेटी का मार्ग तो उन्होंने रोक दिया परन्तु भवितव्यता का मार्ग रोकना उनके वश की बात नहीं थी। नवल बाई तो नहीं जा सकीं, परन्तु गोचरी करती हुई सतियां उनके घर पहुंच गईं । बच्चों की हलचल तथा आवाजों से नवल बाई को पता लग गया कि सतियां आई हैं। वे जानती थीं कि दरवाजा बाहर से बन्द है, फिर भी अपनी भावना के वेग को नहीं रोक सकी । दर्शन करने की लालसा में उन्होंने उठकर किंवाड़ों को थोड़ा-सा धकेला। किंवाड़ भी मानो उनके करस्पर्श की प्रतीक्षा में ही खड़े थे । ज्यों ही हथेलियों का दबाव उन पर पड़ा, वे चौखट सहित ही नीचे आ गिरे।
नवल बाई ने बाहर आकर साध्वियों के दर्शन किये तो सभी पारिवारिक चकित रह गये। किंवाड़ों का इस प्रकार गिर जाना एक चमत्कार माना गया । उसी दिन से नवल बाई के मार्ग की सब बाधाएं समाप्त हो गई। वह पूरा परिवार तभी से तेरापंथी बन गया।
नवल बाई ने वि० सं० १६०५ चैत्र शुक्ला ३ को ऋषिराय के पास पाली में संयम ग्रहण किया। थोड़े ही वर्षों में वे एक विदुषी साध्वी बन गईं। आगमों के अध्ययन में उनकी तीव्र रुचि थी। उन्होंने अनेक बार समग्र आगमों का पारायण किया। ऋषिराय ने उनको शीघ्र ही अग्रणी बना दिया। सं० १९४२ में गुलाबसती के दिवंगत होने पर मघवागणी ने उनको साध्वी-प्रमुखा का भार सौंपा। तेरह वर्षों तक उन्होंने उस उत्तरदायित्व को बड़ी कुशलता के साथ निभाया। सं० १९५५ आषाढ कृष्णा ५ को वे अन शन-पूर्वक बीदासर में दिवंगत हुई।
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