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१८८ चिन्तन के क्षितिज पर श्वेत-वसना सरस्वती गुलाबसती को प्रकृति ने खुले हाथों से रूप-सौष्ठव प्रदान किया था तो वैदुष्य उन्होंने अपने परिश्रम के बल पर अर्जित किया था। संपर्क में आने वाले व्यक्ति पर उनके उस बाह्य एवं आंतरिक सौष्ठव का ऐसा प्रभाव पड़ता कि वह उनके व्यक्तित्व की तुलना करने में किसी मानवी को नहीं, देवी को ही उपस्थित करता। ___सं० १९४२ में मघवागणी के साथ वे जोधपुर में थीं। उस समय के राजमान्य कविराज गणेश पुरीजी मघवागणी के सम्पर्क में आये । अनेक विषयों पर बातचीत कर वे बड़े प्रभावित हुए । जाने लगे तब आचार्यश्री ने कहा 'अवसर हो तो गुलाबसती का सम्पर्क भी करिये।' कविराजजी उसी समय साध्वियों के स्थान पर गए और बातचीत की। वे उनसे इतने प्रभावित हए कि घर न जाकर वापस मघवागणी के पास आये और बोले--'वे तो श्वेत-वसना साक्षात् सरस्वती हैं । मैं अनेक रजवाड़ों में अंतःपुर तक गया हूं। अनेक रूपवती बहनें देखी हैं, पर रूप और वैदुष्य का ऐसा मणिकांचन संयोग कहीं नहीं देखा।' ___सं० १९२७ में सरदारसती के पश्चात् जयाचार्य ने गुलाबसती को साध्वीप्रमुखा बनाया। ग्यारह वर्षों तक जयाचार्य के समय तथा चार वर्षों तक मघवागणी के समय उन्होंने उस भार को बड़ी निपुणता से निभाया। स्वभाव की कोमलता के कारण वे सभी के लिए आराधनीया और पूज्या बनीं । गुलाबसती ने आयुष्य-बल बहुत कम पाया। उनकी छाती पर एक गांठ उठी । अनेक उपचारों के बाद भी वह ठीक नहीं हई। उसी के कारण ४१ वर्ष की अवस्था में ही सं० १६४२ पोषकृष्णा ८ को जोधपुर में उन्होंने अनशन-पूर्वक देहत्याग कर दिया।
३. नवल सती पीहर भेज दिया महासती नवलांजी का जन्म सं० १८८५ में रामसिंहजी का गुड़ा (मारवाड़) में कुशालचंदजी गोलछा की पुत्री रूप में हुआ। तेरह वर्ष की बाल्यावस्था में ही उनका विवाह पाली के अनोपचंद जी बाफणा के साथ किया गया, परन्तु जब वे सत्रह वर्ष की हुई तब उनके पति का देहान्त हो गया। ससुराल वाले तेरापंथी थे अतः नवलबाई का सम्पर्क मुख्यतः तेरापंथी साधु-साध्वियों से हुआ और वे उनके प्रति दृढ़ आस्था रखने लगीं। धीरे-धीरे उनमें विरक्ति के भाव उभरे और वे संयम ग्रहण करने की बात सोचने लगीं।
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