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________________ शक्ति-स्वरूपा जैन साध्वियां १८५ अन्यमनस्कता के साथ आज्ञापत्र लिख दिया। निर्धारित संकल्प पूर्ण हो चुका था, अतः सरदारसती ने उस दिन जल ग्रहण किया और अगले दिन पारण कर लिया। आज्ञापत्र लिख देने पर भी उन्हें सौंपा नहीं गया, अतः बेले-बेले की तपस्या, घर के भोजन का त्याग तथा श्वेत वस्त्र-परिधान-ये तीन प्रत्याख्यान पूर्ववत् चालू रहे। आज्ञापत्र सौंप देने के लिए बात चलाई तो जेठ ने कहा-"लिख ही दिया है तो अब सौंपना ही है। चूरू भेजेंगे तब सौंप देंगे।" जेठ के उक्त कथन से सरदार सती आश्वस्त हो गयी, पर वह धोखा ही निकला। दिन व्यतीत होते गये किंतु न चुरू भेजने की तैयारी की गयी और न आज्ञापत्र ही सौंपा गया। जानबूझकर किये जाने वाले उस विलंब का कहीं अन्त दिखाई नहीं दिया तब उन्हें दूसरी बार अपने प्राणों की बाजी लगानी पड़ी । उन्होंने चूरू भेजने की तैयारी करने से पूर्व अन्नजल का त्याग कर दिया । इतनी-सी बात के लिए भी निर्जल तपस्या के सात दिन निकल गये तब जाकर तैयारी की गयी। आठवें दिन पारण करके वे रथ पर बैठकर विदा हुईं। विदा होने से पूर्व सरदारबाई ने अपने सारे आभूषण जेठ को संभला दिये। जेठ ने चालीस हजार रुपये उन्हें देते हुए कहा--"अपने आभूषण और ये रुपये जैसे चाहो वैसे अपने हाथों से बांट दो।" उन्होंने तब उनमें से पन्द्रह सौ रुपये तो आगम खरीदने के लिए रखे, शेष रुपये, आभूषण और कपड़े इच्छानुसार बांट दिए। विदा होने लगी तब सरदारबाई ने आज्ञापत्र मांगा। जेठ ने कहा-"तुम्हारे साथ जा रहे मुनीमजी को वह दे दिया है। वे तुम्हारे पिताजी के सामने ही तुम्हें सौंप देंगे।" जेठ का यह कथन एक मायाचार मात्र था । चूरू पहुंचने पर मुनीम ने आज्ञापत्र उसके पिता और भाई को देते हुए सरदारबाई को बतलाया कि उसे ऐसा ही आदेश था । पिता और भाई भी उनकी दीक्षा के विरुद्ध थे, अतः बात पुनः खटाई में पड़ गई । अनेक तपस्या, अनेक प्रत्याख्यान और अनेक दबावों के बाद भी जब आज्ञापत्र उन्हें नहीं दिया गया तब तीसरी बार उन्होंने अन्न-जल का परित्याग कर दिया । आज्ञापत्र उनके लिए प्राणांतक परीक्षाओं का एक सिलसिला बन गया था। प्रचंड गरमी के दिनों में निर्जल अनशन के पांच दिन निकल गये । आखिर पिता और भाई का मन पिघला । उन्होंने एक शर्त रखी कि पांच वर्ष तक दीक्षा नहीं लेने का वचन दो तो आज्ञापत्र तुम्हें अभी सौंप दिया जायेगा। सरदारबाई ने कहा- "आप पांच वर्ष की बात करते हैं, परन्तु आज्ञापत्र सौंपे बिना तो मेरे पांच दिन भी निकल पाने संभव नहीं हैं।" आखिर आज्ञापत्र उन्हें सौंप दिया गया तब कहीं उन्होंने जल ग्रहण किया। आज्ञापत्र की प्राप्ति के साथ ही तद् विषयक उनके सारे त्याग पूर्ण हो गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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