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१८६ चिन्तन के क्षितिज पर संयम के पथ पर मुनि जीतमलजी उस समय तक युवाचार्य बन चुके थे। उनका चातुर्मास उदयपुर में था। सरदारबाई ने उनके दर्शनों की व्यवस्था के लिए कहा तब पिता ने सुरक्षा तथा काम के लिए कुछ स्त्री-पुरुषों को उनके साथ ऊंटों पर भेजा। सरदारबाई बहली पर बैठकर विदा हुई । थली, मारवाड़ तथा मेवाड़ के अनेक क्षेत्रों से साधुसाध्वियों के दर्शन करती हुई कार्तिक कृष्णा ४ को उदयपुर पहुंची। युवाचार्यश्री के दर्शन किये । आज्ञा-प्राप्ति में आये संकटों की कहानी सुनाई । अत्यंत कठिनता से प्राप्त छोटे से आज्ञापत्र को यूवाचार्यश्री के सम्मुख रखते हुए उन्होंने कहा"इन तीन पंक्तियों के लिए मुझे तीन बार आमरण अनशन करना पड़ा है।" साहस और सहिष्णुता की उस अभिनव कहानी को सुनकर उपस्थित सभी व्यक्तियों को रोमांच हो आया।
सरदारबाई ने युवाचार्यश्री से यथाशीघ्र दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की, परन्तु उस समय उदयपुर में साध्वियां नहीं थी अतः प्रतीक्षा करना आवश्यक था। चातुर्मास के पश्चात् गोगुंदा से दो साध्वियां वहां आई तब सं० १८९७ मार्गशीर्ष कृष्णा ४ को उन्हें दीक्षित किया गया । बहुत शीघ्र उन्होंने साधुचर्या के हर कार्य में निपुणता प्राप्त कर ली। ग्रहणशीलता और बुद्धि की प्रखरता के बल पर आगमिक अध्ययन भी अच्छा कर लिया । साहस और कार्यक्षमता की उनमें कोई कमी नहीं थी । इन सभी गुणों के आधार पर आचार्य ऋषिराय ने उनको अग्रणी बना दिया। अनेक वर्षों तक वे अग्रगण्या के रूप में जनपद-विहार करती रहीं।
सं० १९०८ में ऋषिराय के दिवंगत होने पर आचार्य पद पर जयाचार्य आसीन हए। उस समय तक साध्वी-समाज अपने-अपने सिंघाड़ों के रूप में ही चलता था। सभी सिंघाड़ों की कोई सुनियोजित और सुनियंत्रित व्यवस्था नहीं थी। जयाचार्य ने ऐसी व्यवस्था करनी चाही। उसमें उन्हें सरदार सती की व्यवहार-कुशलता का अच्छा सहयोग मिला। सं० १६१० में उन्हें साध्वी-प्रमुखा बनाया गया। वे तेरापंथ धर्मसंघ की प्रथम साध्वी-प्रमुखा थीं। उससे पूर्व सभी साध्वियों की आवश्यकताओं एवं व्यवस्थाओं की चिंता करने वाली कोई नियुक्त साध्वी नहीं थी। प्रत्येक अग्रणी साध्वी प्रायः अपने सिंघाड़े में रहने वाली साध्वियों की ही मुख्यतः चिन्ता किया करती थी। सरदार सती ने कार्य संभालने के पश्चात् बड़ी सूझ-बूझ और परिश्रम से काम किया। धीरे-धीरे साध्वियों के सभी सिंघाड़े उनकी निश्रा में आ गये । सोलह वर्ष पश्चात् सं० १९२६ में उन्होंने सिंघाड़ों की नयी व्यवस्था की। उस समय संघ में १७४ साध्वियां थीं। उनमें दस सिंघाड़े, जो पहले थे, वे ही रखे और शेष साध्वियों में से योग्य देखकर एक ही दिन में तेईस नये सिंघाड़े बना दिये। सबमें
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