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बौद्धिक वर्ग : सामाजिक दायित्व है
बनते हैं । श्लोककार ने 'साक्षरा' शब्द का प्रयोग भी ऐसा ही किया है, जो उलटा पढ़ने पर 'राक्षसा' हो जाता है। मस्तिष्क की संज्ञा बुद्धिजीवी वर्ग समाज का महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक अंग होता है। उसे मस्तिष्क की संज्ञा दी जाती है। जैसे शरीर में मस्तिष्क सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, वैसे ही समाज में बुद्धिजीवी वर्ग है । यदि मस्तिष्क के अन्दर जरा-सी भी खराबी होती है तो सारी क्रियाएं, व्यवस्थाएं और व्यवहार गड़बड़ा जाते हैं । व्यक्ति का पूरा व्यक्तित्व ही लड़खड़ा जाता है । उसी प्रकार यदि बुद्धिजीवी वर्ग का चिन्तन सदोष होता है तो वह पूरे समाज तथा राष्ट्र की स्थिति को डावांडोल कर डालता है। तथ्यों की गहराई में जाएं बुद्धिजीवी सर्वगुण सम्पन्न ही होते हैं, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि वे वीतराग नहीं होते। वे भी भ्रान्त हो सकते हैं। मत-पक्ष और मत-भेद का आश्रयण कर सकते हैं फिर भी वे बौद्धिक हैं अतः उनसे यह आशा की जा सकती है कि वे मूरों की तरह थप्पड़-मुक्के की बात नहीं करेंगे, अपितु तथ्यों की गहराई में जाकर उन पर सर्वतोमुखी चिन्तन करेंगे । अवश्य ही उनके ऐसे चिन्तन का निष्कर्ष सुन्दर होगा। ही भी गया है 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' अर्थात पारस्परिक विचार-विमर्श से कहा तत्त्व का बोध होता है। बौद्धिक वर्ग जब किसी सामूहिक निर्णय पर पहुंचता है तब स्वभावतः ही जनता को करणीय-अकरणीय का ज्ञान हो जाता है।
सत्य के साथ सौदेबाजी न हो बुद्धिजीवियों के सम्मुख यह आदर्श होना चाहिए कि वे सत्य के साथ कभी कोई सौदेबादी नहीं करें। सत्य के लिए जहां स्वार्थ-त्याग की आवश्यकता हो वहां उन्हें उसके लिए तैयार रहना चाहिए । व्यक्ति ज्यों ही स्वार्थोन्मुख होता है, सत्य या आदर्श का लोप हो जाता है। भारतीय लोकसभा कक्ष में एक श्लोक उद्धृत है
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । धर्मः स न यो न हितावहः स्याद्,
हितं न तद् यद् छलमभ्युपेतम् ।। वह सभा वास्तविक सभा नहीं है, जिसमें वृद्ध व्यक्ति नहीं । वृद्ध से तात्पर्य अनुभव-वृद्ध एवं ज्ञान-वृद्ध से है। आगे कहा गया है--वे वृद्ध भी वास्तविक वृद्ध नहीं हैं, जो धर्म एवं कर्तव्य की बात नहीं कह सकते हों। उस धर्म को भी धर्म
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