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द्रष्टा ऋषि : आचार्यश्री तुलसी
आनन्द और उल्लास से भरा हुआ वातावरण, प्रगति और उन्नति की आकांक्षाओं से परिपूरित जन-मानस, राष्ट्र-निर्माण के सत् संकल्प से आप्लावित नेत-वर्ग और स्वतंत्र राष्ट्र के अनुरूप हर क्षेत्र में आत्म-निर्भरता के लिए श्रम-सातत्य में उठे हुए जनता-जनार्दन के हाथ——यह बतला रहे थे कि स्वतंत्र होने के साथ ही उभर आई कठिनाइयों पर विजय पाकर भारत अब अपनी भावी योजनाओं के अनुकूल प्रगति करने को तैयार है । सचमुच ही उस समय कृषि-विकास से लेकर सामाजिक नव-निर्माण तक के प्रत्येक क्षेत्र में उच्चतर स्थिति को प्राप्त करने की ओर कदम बढ़ाये जा रहे थे । आशा और उत्साह से भरे ऐसे माहौल में एक तरुण व्यक्ति जनता और जन-नेताओं को चेता रहा था कि राष्ट्र-निर्माण के इस महायज्ञ में चरित्र-विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उसकी मान्यता थी कि चरित्रविहीन राष्ट्र की सारी प्रगति राख में डाली गई आहुति के समान व्यर्थ हो जाती है । वह व्यक्ति था उस समय तक स्वल्प ज्ञात किन्तु चिन्तन और कार्य-क्षमता की तेजस्विता से परिपूर्ण आचार्यश्री तुलसी। उनकी उस विचार-धारा से सभी लोग सहमत तो होते, परन्तु उसे कार्य रूप में परिणति देने का अवकाश किसी के पास नहीं था। राष्ट्र का प्रायः समग्र कौशल और श्रम भौतिक समृद्धि की दौड़ में नियोजित हो रहा था ।
असांप्रदायिक आंदोलन आचार्यश्री तुलसी ने 'एग एव घरे लाढे' अर्थात् 'अकेले-चलो' भगवान् महावीर के इस उपदेश को मार्ग-दीप बनाया और अपने साधन तथा क्षमता को तोलकर अकेले ही चल पड़े। उन्होंने २ मार्च १९४६ को अणुव्रत-आन्दोलन का सूत्रपात किया। सर्वधर्म समादृत छोटे-छोटे व्रतों के द्वारा उन्होंने मानव जाति के लिए सदाचार और नैतिकता की प्रेरणा दी। इस असाम्प्रदायिक आन्दोलन की आवाज जन-जन तक पहुंची और उससे लाखों लोग प्रभावित एवं लाभान्वित हुए।
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