________________
दर्पण एक : हजारों चेहरे
आचार्यभिक्षु का समस्त जीवन उस पवित्र पुस्तक के समान था, जिसके प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति प्रेरणादायक होती है । सार्थक व सोद्देश्य शब्द-संयोजन, निर्भीक व निर्लिप्त अभिव्यक्ति और साद्यन्त सत्य-प्रतिबद्धता, ये उस पुस्तक की पवित्रता के साक्ष्य हैं । जिसने भी उसे पढ़ा, नयी स्फूर्ति से भर गया । सहस्रों-सहस्रों व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते रहते थे, उनमें अनुकूल और प्रतिकूल--दोनों ही प्रकार के होते थे, परन्तु उनसे प्रभावित हुए बिना शायद ही कोई बच पाता था।
नदी के प्रवाह की तरह निरन्तर गतिशील स्वामीजी की संयम-यात्रा की प्रत्येक लहर न जाने कितने व्यक्तियों की पिपासा शान्त कर गई, कितनों के उत्ताप का हरण कर गई और कितनों की सूखती हुई खेतियां लहलहा गईं। साथ में यह भी सत्य है कि न जाने वह कितने अवरोधों को ढहाकर अपने साथ बहा ले गई।
जन-कल्याण के उद्देश्य से किया गया स्वामीजी का जन-सम्पर्क रत्नत्रयी की वृद्धि करने में अत्यन्त सफल रहा । सम्पर्क विषयक विचित्र घटनाएं इक्षु के छोटेछोटे पोरों की तरह अत्यन्त सरस और सुमधुर तो हैं ही, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से बलदायक भी हैं। ___ स्वामीजी का जीवन-पट घटनाओं के ही ताने-बाने से बुना हुआ था, इसलिए कहा जा सकता है कि उन्हें घटनाओं के माध्यम से जितनी सरलता से समझा जा सकता है, उतनी सरलता से अन्य किसी माध्यम से नहीं। प्रत्येक घटना उनके विविधांगी जीवन के किसी-न-किसी नये पहलू की अवगति प्रदान करती है । हीरे के पहलुओं के समान सभी घटनाओं का अपना-अपना पृथक् सौन्दर्य और पृथक् कटाव-छंटाव है। फिर भी सम्पूर्ण जीवन-सौन्दर्य के साथ उनका अविकल सामंजस्य बना हुआ है। बुराई में भी भलाई की खोज संसार में ऐसे व्यक्ति बहुत कम मिलेंगे, जो अपने कानों से अपनी निंदा सुनकर भी उत्तेजित न हों। स्वामीजी में यह विशेषता इतनी उत्कृष्ट थी कि वे अपनी निंदा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org