________________
अहिंसक क्रान्ति के पुरोधा भगवान् महावीर १५५ ओर बिखरी हुई थी, फिर भी उनके मन में उन सबके प्रति कोई आकर्षण नहीं था । वे तत्कालीन मानव-समाज में व्याप्त धार्मिक, नैतिक और सामाजिक कुंठाओं के निराकरण की बात सोचते रहे । ज्यों-ज्यों वे इस विषय के चिंतन की गहराइयों में उतरते गए, त्यों-त्यों अधिकाधिक स्पष्टता के साथ यह अनुभव करने लगे कि जीवन के प्रति जनता के सोचने के प्रकार में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है । उन्होंने उस समय की समस्याओं का समाधान सुधार में नहीं, किन्तु विचार क्रान्ति में ही संभव पाया।
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व के युग को अपनी कल्पना की रील पर उतार कर जरा ध्यान से देखिए। कैसा था वह युग, कितनी रूढ़ परम्पराओं और दंभों से घिर गया था उस समय का मानव जीवन ? पर्वत की चोटी से फिसले हिम-खंड की तरह सारा समाज ही बड़ी तेजी से नीचे की ओर लुढ़कता जा रहा था। बचाव असंभव लग रहा था, विनाश सुनिश्चित । उस समाज को विनाश की ओर जाने से कौन रोक सकता है, जिसने जातिगत श्रेष्ठता और हीनता के विचारों की कल्पनात्मक दीवार खड़ी करके मनुष्य-मनुष्य में परस्पर अलगाव उत्पन्न कर दिए हों। धर्म के नाम पर संख्यातीत मूक पशुओं की बलि चढ़ाने को मान्यता प्रदान की हों, धर्म विषयक अधिकार जाति विशेष के लिए ही सुरक्षित कर दिए हों और मातजाति को ज्ञान के अधिकार से सर्वथा वंचित कर दिया हो।
महान् निग्रंथ भगवान महावीर ने तत्कालीन भारतीय समाज की सभी समस्याओं पर विचार किया और उनके उद्गम को खोज निकाला। उन्होंने पाया कि सभी समस्याएं मानव-हृदय में व्याप्त होती हैं । जब तक एतद् विषयक अज्ञान दूर नहीं कर दिया जाता, तब तक किसी भी समस्या का समुचित समाधान हो नहीं सकता। वस्तुस्थिति जान लेने के पश्चात् अज्ञान-मूलक रूढ़ियों का अंत स्वतः ही संभव हो जाता है। इसीलिए उन्होंने अपने अन्तर्दर्शन में ज्ञान को अनिवार्य बतलाया और उसी के प्रकाश में की जाने वाली क्रियाओं को महान् फलदायिनी बताया। अज्ञान या मिथ्यात्व को उन्होंने भव-भ्रमण का मूल हेतु माना।
दूसरों को मार्ग बतलाने से पूर्व वे स्वयं चरम सीमा तक उसका निरीक्षण कर लेना आवश्यक समझते थे, इसीलिए ३० वर्ष की पूर्ण युवावस्था में ही उन्होंने सभी प्रकार के सहज प्राप्त इन्द्रिय-सुखों को ठोकर मार दी और आत्म-विजय के मार्ग पर निर्भय होकर एकाकी ही आगे बढ़ चले। वे आभ्यन्तर और बाह्यरूप से सभी प्रकार की ग्रंथियों से मुक्त होकर निग्रंथ बन गए । निग्रंथ बनने के साथ ही उन्होंने जो प्राथमिक प्रतिज्ञाएं की, उनमें से कुछ निम्नोक्त हैं
१. आज से मैं समस्त पापाचरणों से निवृत्त होता हूं। मन, वचन और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org