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________________ १५६ चिन्तन के क्षितिज पर काया से न मैं कोई सपाप आचरण करूंगा, न किसी से ऐसा आचरण करवाऊंगा और न किसी के ऐसे आचरण का अनुमोदन करूंगा। २. आज से मैं व्युत्सृष्टकाय त्यक्त-देह होकर विहार करूंगा। काया के बचाव को महत्त्व नहीं दूंगा, लक्ष्य सिद्धि के लिए उसे भी होम देने को तैयार रहूंगा। ३. किसी के द्वारा दिए गए अथवा सहज उत्पन्न कष्टों को समभाव से सहूंगा। उनकी निवृत्ति के लिए किसी की सहायता स्वीकार नहीं करूंगा। ४. राग और द्वेष के बंधन से दूर रहकर वीतराग भाव की आराधना करूंगा। उपर्युक्त प्रतिज्ञाओं के साथ ही महावीर का साधना काल प्रारम्भ हुआ। यह काल लगभग साढ़े बारह वर्ष तक निरन्तर चलता रहा। इसमें वे बहुधा मौन, एकांतवास, अभय, तपश्चर्या और तत्त्व चिंतन में लीन रहे । फलस्वरूप उन्हें मन, वचन और तन की पूर्ण निर्दोषता प्राप्त हुई और वे वीतराग बन गए। उसी समय उन्हें कैवल्य की भी प्राप्ति हुई। जिस प्रकार शिव ने काम को भस्म किया था, बुद्ध ने मार पर विजय पायी थी, उसी प्रकार महावीर ने मोह का विनाश किया और वे आत्मजयी बने । साधना की पूर्णता के पश्चात् उन्होंने धर्मोपदेश दिया और जनता को कल्याण का मार्ग बतलाया। संन्यस्तों के लिए महावत तथा गृहस्थों के लिए अणुव्रत धर्म की साधना को उन्होंने आवश्यक बतलाया। उनके उपदेशों का ऐसा अचूक प्रभाव हआ कि महान् यज्ञकर्मी इन्द्रभूति आदि अनेक विद्वान् व अभिमानी ब्राह्मणों, स्कंदक आदि अनेक तापसों, उदयन आदि अनेक प्रभावशाली राजाओं तथा वैश्य, कुम्हार, कृषक और शूद्र कही जाने वाली जातियों तक ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। भगवान् महावीर ने समाज में जाति या वर्ण के आधार पर खड़े किये गए वैषम्य का बड़ी प्रबलता से खंडन किया। उन्होंने कहा-सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक है। उसमें उच्चावचता का भेद डालना भयंकर अपराध है । जातीय-विशेष में उत्पन्न होने मात्र से कोई पूजनीय नहीं बन जाता, पूजनीय तो गुणोत्कर्ष से बनता है। ___ उन्होंने मनुष्य मात्र के लिए धर्मपालन में समान अधिकार की घोषणा की। अहिंसा को परम धर्म बताते हुए उन्होंने कहा-यज्ञार्थ की जाने वाली पशुबलि अज्ञान का प्रतिफल है। उनका यह उपदेश युगवाणी बनकर जनता के हृदय में समाता चला गया। आत्म-विजय भगवान महावीर द्वारा बतलाए गए मार्ग को यदि किसी एक ही शब्द में व्यक्त करना हो तो वह शब्द होगा--'आत्म-विजय' । इसके बिना किसी भी साधक की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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