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________________ १५२ चिन्तन के क्षितिज पर साधना पूर्ण हुई। आत्मज्ञान की प्रखर ज्योति प्रज्वलित हुई । आत्म-विजय की उस परमोन्नत अवस्था में वे 'जिन' कहलाए। जिनत्व-प्राप्ति के पश्चात् ही उन्होंने संसार को धर्म-सन्देश दिया। उससे पूर्व वे निरन्तर मौन तपस्वी बने रहे। रत्नत्रयी उन्होंने अपने धर्म-सन्देश में हर व्यक्ति के लिए सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र के रूप में रत्नत्रयी की आवश्यकता बतलायी। साधना-मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए सर्वप्रथम सम्यग् दर्शन अर्थात् सम्यक् श्रद्धा की आवश्यकता है । भौतिक पदार्थों से परे आत्मादि तत्त्वों पर श्रद्धा हुए बिना साधना के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता । निर्लक्ष्य साधना तो निरुद्देश्य भटकने के समान व्यर्थ का प्रयास मात्र है। कोरी श्रद्धा से भी काम नहीं चल सकता, अतः उन्होंने कहा-श्रद्धाशील व्यक्ति को सतत मनन करते रहना चाहिए, जो कि श्रद्धा और विश्वास को सम्यक् ज्ञान और प्रकाश के रूप में परिणत कर देता है। यहां भी रुकने की आवश्यकता नहीं है । आगे बढ़कर अपने ज्ञान को आचरण में ढालना चाहिए । यही सम्यक् चारित्र है । आचरण-शून्य कोरा शब्द-ज्ञान या सिद्धान्त-ज्ञान त्राता नहीं हो सकता। साधना के इस मार्ग को उन्होंने ब्राह्मण, शूद्र, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान रूप से मोक्षदायी बतलाया। महाव्रत : अणुव्रत उन्होंने सदाचरण के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच व्रतों की प्ररूपणा की। संन्यस्त जीवन बिताने वाला इन्हें अखण्ड रूप से स्वीकार करता है तब ये महाव्रत कहलाते हैं और गृहस्थ जीवन बिताने वाला इन्हें क्रमिक विकास की भावना से यथाशक्य ग्रहण करता है, तब अणुव्रत। ___ पांचों व्रतों का मूल उन्होंने अहिंसा को बतलाया। अहिंसा की भावना मन में प्रतिष्ठित नहीं हो जाती, तब तक अन्य किसी भी व्रत की निष्ठापूर्ण साधना असम्भव है । उन्होंने बतलाया कि अहिंसा का अर्थ प्राणिवध-वर्जन मात्र ही नहीं है, अपितु वह प्राणिमात्र को आत्मोपम्य मानने से भी सम्बद्ध है। उसका फलित होता है—विश्वप्रेम । सूक्ष्मता की दृष्टि से कहा जाए, तो अहिंसा का सम्बन्ध अन्य प्राणियों की अपेक्षा स्वयं से अधिक है, अतः अपनी दूषित प्रवृत्ति और दूषित चिन्तन भी हिंसा में समाविष्ट है इसीलिए पूर्ण अहिंसा की साधना के स्तर पर शेष सभी व्रतों का उसमें समावेश हो जाता है। अहिंसा भगवान् महावीर ने अहिंसा को प्रथम धर्म इसलिए भी कहा कि उसमें समाज की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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