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अहिंसावतार भगवान् महावीर
आध्यात्मिक महापुरुषों में भगवान महावीर का नाम बड़े गौरव के साथ अग्रिम श्रेणी में लिया जाता है । उन्होंने भौतिकवाद में पगी जनता की विचारधारा को आध्यात्मिकता की ओर युगान्तरकारी मोड़ प्रदान किया तथा जड़ प्रकृति की गवेषणा में व्यस्त मानवीय चिन्तन को चेतनामय आत्मा की गवेषणा का नया आयाम दिया। उसमें मनुष्य के लिए स्थूल से सूक्ष्म की ओर तथा बहिरंग से अन्तरंग की ओर प्रस्थान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होंने अपनी जीवन-पद्धति और विचार-पद्धति—दोनों से ही जन-मानस को अत्यन्त प्रभावित किया । अहिंसा धर्म के तो वे अवतार ही माने जाते थे ।
रमे नहीं वैभव में भगवान महावीर वैभव में जन्मे और वैभव में ही पले-पुसे । परन्तु उनका मन उसमें नहीं रमा । वे मानवीय संस्कारों के विषय में सोचते, मनन करते और उन्हें विकसित करने के उपाय खोजते । वह ऐसा युग था, जिसमें धर्म के नाम पर सहस्रों निरीह पशुओं की बलि दी जाती थी। वर्णाश्रम-व्यवस्था का रूप इतना दूषित हो गया था कि उससे मनुष्य ही मनुष्य के लिए अस्पृश्य बन चुका था। दास-प्रथा ने मनुष्य के जीवन को पशु से भी हीनतर बना दिया था। समाज के अर्धाग नारी जाति के लिए विकास के सब द्वार बन्द किये जा चुके थे । वह मात्र एक भोगसामग्री के रूप में ही प्रतिष्ठित रह गयी थी।
साधना के पथ पर भगवान् महावीर ने इन सभी परिस्थितियों को देखा, उनके मूल को समझा और फिर उनके निराकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उन्होंने पहले पहल स्वयं को साधने की तैयारी की। तीस वर्ष की परिपूर्ण युवावस्था में समग्र परिवार और राज्य का मोह छोड़कर वे साधना में लीन हो गये । साढ़े बारह वर्ष की सुदीर्घ साधना के द्वारा उन्होंने स्वयं को ही अपने सिद्धान्तों की कसौटी पर परखा। आखिर
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