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________________ आत्म-जागरण के उपदेष्टा महावीर १४६ के लिए बाध्य कर दिया गया था, उनमें आत्म-गौरव जागरित हुआ। हरिकेशबल जैसे चाण्डाल-कुलोत्पन्न शूद्रत्व की सीमा से बाहर निकले और संन्यस्त होकर देवपूजित बन गये । जन्मना शूद्रत्व मानने वाले धार्मिक पुरोहितों पर भी उसका गंभीर परिणाम हुआ। वे भी सहस्रों की संख्या में भगवान् महावीर के शिष्य बनकर मानव जाति के समानत्व का प्रचार करने में लग गये। ___ महावीर के समकालीन बुद्ध ने भी वर्ण-व्यवस्था को अमान्य किया था। श्रमण परम्परा की इन दोनों धाराओं ने एक बार के लिए समग्र भारत की आत्मा को आन्दोलित कर दिया था। यह दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वह आवाज कालान्तर में क्षीण हो गयी और वर्ण-व्यवस्था को मान्य करने वालों ने पुनः प्रबलता से उसकी स्थापना कर डाली । परन्तु तब से वह आवाज कभी बन्द नहीं हो पायी। आगे से आगे अनेक व्यक्तियों ने, यहां तक कि स्वयं वैदिक धर्म को मान्य करने वालों ने भी वह आवाज उठायी। इस युग में महात्मा गांधी ने तो इसे समग्र भारत का एक यक्ष-प्रश्न बना दिया था। फिर भी अभी तक आत्म-जागरण की वह लौ सर्वथा बुझी नहीं है, तो इतने वेग से प्रज्वलित भी नहीं हो पायी है कि जिससे वर्णव्यवस्था की वह पुनरुजीवित भावना जलकर राख हो जाए । यद्यपि वर्ण-व्यवस्था से उत्पन्न अस्पृश्यता को भारत ने आज कानूनी अपराध घोषित कर दिया है फिर भी व्यावहारिक धरातल पर अभी उसे पराजित करना शेष है । आत्म-जागरण का अभाव ही उसमें बाधक बना हुआ है। कानून अपने आप में निर्जीव ही बना रहता है, जब तक कि जनता के आत्म-जागरण का चैतन्य उसमें नहीं आ जाता। नारी जागरण का सूत्रपात वर्ण-व्यवस्था को अमान्य करने के अतिरिक्त भगवान् महावीर की दूसरी सामाजिक देन थी-नारी-जाति का जागरण । उस युग में नारी का महत्त्व एक भोग-सामग्री से बढ़कर कुछ नहीं था । धन-धान्य आदि के समान वह भी परिग्रह की ही एक वस्तु मात्र थी। उसके शोषण की कहानी करुणाद्रं कर देने वाली है। मनुष्य ने मन्दिरों में उसे देवदासी बनाया, विधवा हो जाने पर पति के शव के साथ ही दग्ध हो जाने के लिए बाध्य किया, पाप, पतन और नरक की काली छाया कहकर त्याज्य बतलाया। नारी ने भी उस सवको अपना दुर्भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया। उसके परित्याग की कहानी रामायण से लेकर निरन्तर सुनने में आती रही है। इस प्रकार की कठोर. पृष्ठभूमि में महावीर की उक्त देन का महत्त्व आंका जा सकता है। उनके सम-सामयिक गौतम बुद्ध जैसे समर्थ व्यक्ति भी अपने संघ में नारी को स्थान देने का साहस नहीं कर पाये थे। बाद में जब अपने प्रिय शिष्य आनन्द के दबाव से उन्होंने स्त्री को संघ में स्थान दिया तो अनिच्छा से ही दिया और उसे संघ के लिए खतरा बतलाया जो कि बाद में सत्य भी निकला। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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