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१४८ चिन्तन के क्षितिज पर
परिवार और समस्त सुख-सुविधाओं को ठोकर मारकर तपस्वी-जीवन स्वीकार करने का उनका संकल्प कोई तात्कालिक आवेग-मात्र नहीं था। आवेग में आकर सब कुछ छोड़ा जा सकता है, पर सदा के लिए नहीं । सदा के लिए तो वह किसी सिद्धान्त के आधार पर ही छोड़ा जा सकता है और फिर सिद्धान्त यों ही एक दिन में नहीं बन जाया करता । अंकुर की तरह चिन्तन की भूमिका पर उसका विकास हुआ करता है । विकास की प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए लम्बा समय अपेक्षित होता है। महावीर उस प्रक्रिया में से गुजर चुके थे। अपने सिद्धान्त की कसौटी पर सर्वप्रथम उन्होंने अपने आपको ही कसा। साढ़े बारह वर्ष की सुदीर्घ साधना पूर्ण हुई और आत्म-ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई। 'स्व' सर्व के लिए साधना की उस चरम विकास की अवस्था में वे जिन कहलाए। 'जिन' अर्थात् विजेता। उन्होंने किसी देश को नहीं, आत्मा को जीता था। मैं किसी बाहरी युद्ध में नहीं, अन्तर्वत्तियों के युद्ध में विजयी बने थे। परम विजय का मार्ग आत्मा से प्रारम्भ
और आत्मा में ही पर्यवसित होता है । स्व-विजय ही सर्व-विजय का मूल मंत्र है। 'स्व' केन्द्र है, 'सर्व' परिधि । केन्द्र के अभाव में परिधि की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार 'स्व' को छोड़कर 'सर्व' की कल्पना नहीं की जा सकती। महावीर की साधना का लक्ष्य 'सर्व' नहीं 'स्व' था। 'स्व' से प्रारम्भ कर वे 'सर्व' तक पहुंचे थे। स्व-विजय के पश्चात् ही उन्होंने सर्व के लिए कहा। उससे पूर्व वे मौन तपस्वी रहे । उनके प्रवचन समग्र जगत के जीवों की रक्षा हेतु तभी बन सके, जबकि वे आत्म-प्रकाश में से निःसृत हुए। वस्तुतः उनका 'स्व' सर्व के लिए उन्मुक्त हो गया।
महावीर के उपदेशों का उन्मुक्त स्वर आत्म-जागरण का स्वर है। वे किसी शक्ति-विशेष से याचना नहीं करते। उनका कथन तो अपनी ही अनन्त-शक्तियों में विश्वास करने का है। जो कुछ पाना है, वह बाहर से नहीं अन्दर से ही पाना है, वह भी प्राप्त को ही पाना है, अप्राप्त को नहीं । अप्राप्त कभी पाया ही नहीं जा सकता । जो हमारे में नहीं है, वह कभी आ नहीं सकता। इसी प्रकार जो हमारे में है, वह कहीं जा भी नहीं सकता । बात केवल इतनी ही है कि जो कुछ हमारे पास है, वह अभी तक आवृत है, हमारे पास होते हुए भी हमें ज्ञात नहीं है। उस पर से आवरण हटा देना ही उसे पा लेना है।
वर्ण-व्यवस्था को अमान्यता महावीर के आत्म-जागरणकारी उपदेश का परिणाम बड़ा गम्भीर हुआ। जो व्यक्ति या जातियां अपने को जन्मतः हीन मानने लगी थीं या उन्हें ऐसा मानने
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