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________________ निर्माण के निखरते दायित्व ५ निर्भर है वर्तमान पर भविष्य काल में मनुष्य का प्रवेश होता है कल्पना के द्वारा । वह अपने असन्तोषों तथा असफलताओं के घाव भविष्य में नहीं ले जाना चाहता, अतः उन सबसे मुक्त भविष्य की कल्पना करता है । अतीत के अनुभवों से वह उन कल्पनागत सफलताओं को सजाता है । जब उन वायवी कल्पनाओं को मूर्त रूप देकर ठोस धरातल पर उतारने का समय उपस्थित होता है तभी व्यक्ति को वास्तविकता से आमने-सामने होना पड़ता है। उस समय उसका पुरुषार्थ जितना साथ देता है उतनी ही सफलता की सम्भावना रहती है । शेष सभी कल्पना-जगत् के महल ढह पड़ने को विवश होते हैं। अतीत का अर्थ ही यह है कि जो बीत चुका है, मर चुका है। उसके विषय में की गयी कोई चिन्ता कारगर नहीं हो सकती। भविष्य के विषय में अवश्य कुछ सोचना आवश्यक होता है। वह उस गर्भस्थ भ्रूण की तरह है, जो कालान्तर में शिशु बनकर हमारे बीच उपस्थित होने वाला होता है । परन्तु उसके लिए जो भी योजना बनती है, जो भी करणीय निर्धारित होता है, वह सब वर्तमान से ही संबद्ध होता है । इसलिए अन्ततः सारा दारमदार वर्तमान पर निर्भर करता है। वर्तमान जिसके हाथ में होता है, भविष्य भी उसी के हाथ में होता है । वर्तमान सुधरता है तभी भविष्य सुधरता है । ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भविष्य को वर्तमान बनना ही पड़ता है। अतीत का कल अब कभी 'आज' नहीं बन पाता, परन्तु भविष्य के कल को तो 'आज' बनना ही होता है । इसीलिए आज को सुधारना एवं सफल बनाना ही भविष्य को सुधारना और सफल बनाना है। यहां काल के आधार पर सुधार की जो बात कही जा रही है, वह उपचार मात्र ही है। वास्तव में तो व्यक्ति को ही सुधरना होता है । व्यक्ति सुधरता है तभी उसका वर्तमान और भविष्य भी सुधरता है। सुधार से तात्पर्य है---व्यक्ति के गुणों का उत्तरोत्तर विकास। सफलता के चार सूत्र जीवन के विकास की अनन्त सम्भावनाएं हैं । सर्वोच्च आदर्श को लक्ष्य बनाकर चलना चाहिए, तभी विकास के शिखरों को छुआ जा सकता है । छोटा लक्ष्य बनाने वाले उस सीमा के दर्शन भी नहीं कर पाते । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति भी जब प्राप्ति-सीमा में आ सकती है तो उससे स्वल्प पर क्यों किसी को ठहरना चाहिए ? पौंछा देने की नौकरी खोजने निकलोगे तो राज-व्यवस्था का दायित्व नहीं सम्भलाया जा सकेगा। विकास के लिए जितना ऊंचा लक्ष्य बनाया जाता है, उसकी सफलता के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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