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________________ ४ चिन्तन के क्षितिज पर होकर लौट आते हैं, फिर भी सहस्रों - सहस्रों में कोई एक तो सफलता पाता ही है । सफलता पाने वाले की पहले से कोई पृथक् पहचान नहीं होती, वह कोई भी हो सकता है । एक की सफलता सबकी सफलता के द्वार खोल देती है । उससे विश्वास जागता है कि वह सफल हुआ है तो मैं भी हो सकता हूं । अपने हाथ, जगन्नाथ जीवन के कार्यक्षेत्र में प्राप्त की गई सफलता ही व्यक्ति के भविष्य का निर्माण करती है। दूसरे शब्दों में इसे ही भाग्य का निर्माण भी कहते हैं । अपने भविष्य का निर्माण व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है । दूसरा जो कुछ प्राप्त करता है वह उसी की उपलब्धि होती है, अन्य किसी की नहीं, इसी तरह दूसरे की सफलता भी उसी की होती है, अन्य का उसमें कोई श्रेय नहीं होता । इसीलिए यहां जो कुछ भी पाना है, वह स्वयं अपने ही हाथों से पाना है । 'अपने हाथ, जगन्नाथ' की कहावत इसी ओर संकेत करती है । अयं मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः'ये मेरे हाथ ही भगवान हैं, इतना ही नहीं, ये भगवान से भी बढ़कर हैं ।' उक्त कथन में किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं होकर वास्तविकता का ही दिग्दर्शन कराया गया है। मनुष्य को जो कुछ भी बनना है, वह स्वयं अपने द्वारा ही बनना है । इस क्षेत्र में अन्य कोई मार्ग है ही नहीं । 'अपने द्वारा अपना निर्माण' यह शाश्वत सत्य है तीनों कालों में I 1 काल के तीन भेद किये जाते हैं - वर्तमान, भूत और भविष्य । इनमें केवल वर्तमान ही ऐसा है, जो विद्यमान होता है । शेष दो तो सदैव अनुपस्थित ही रहते हैं । इनमें एक भूतकाल है, जो बीत चुका होता है। दूसरा भविष्यकाल है, जो अभी तक अजन्मा ही है । ये दोनों उन अतिथियों के समान हैं, जिनमें से एक जा चुका है तो दूसरा आया ही नहीं है । फिर भी मनुष्य तीनों से संबंध रखने के प्रयास में लगा रहता है । वर्तमान को तो वह प्रतिक्षण भोग रहा होता है, परन्तु शेष दोनों के भोग से भी चूकता नहीं । समय के जिस मार्ग पर से अतीत में वह गुजरा है, वह मार्ग तो समाप्त हो चुका है, दुबारा कभी उस पर से नहीं गुजरा जा सकता, परन्तु उस काल में अर्जित संस्कार और अनुभव व्यक्ति की चेतना में संगृहीत रह जाते हैं । वह समय समाप्त हो जाता है, पर वह चेतना सदा कायम रहती है । उसमें संचित संस्कार और अनुभव भी लम्बे समय तक स्मृतिकोश में सुरक्षित रहते हैं। अपनी स्मृति के बल पर जब मनुष्य जुगाली करने बैठता है तो मानो वह अविद्यमान अतीत में गुजर रहा होता है । प्रत्यक्ष भक्त घटना को स्मति के पर्दे पर बार-बार भोगता रहता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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