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अणुव्रत के सन्दर्भ में व्यक्ति और समाज
सुधार की प्रयत्न-शृखला अणुव्रत आत्म-सुधार की एक क्रमिक प्रयत्न-शृंखला है। पत्थर जैसा होता है, वैसा ही सहस्रों वर्षों तक पड़ा रह सकता है। प्रकृति ही स्वयं जो कुछ उसमें अन्तर कर दे तो चाहे कर दे, वह स्वयं अपने लिए कुछ नहीं करता। मनुष्य वैसा जड़ नहीं है । वह उतना प्रकृति-परायण भी नहीं है । लम्बे समय तक किसी भी एक स्थिति में पड़े रहना उसे पसन्द नहीं है। वह अपने आपमें परिवर्तन चाहता है। अच्छा हो या बुरा, ऊंचाई की ओर हो या ढलाव की ओर, सुधार हो या बिगाड़, ये सभी बातें बाद की हैं, पहली बात तो परिवर्तन की ही है। मनुष्य जब यह सोचना प्रारम्भ करता है कि उसमें कौन-सा परिवर्तन होना चाहिए और कौन-सा नहीं, तब वह विवेक-जागृति की अवस्था में होता है। उस अवस्था में वह प्रायः अच्छाई, ऊंचाई और सुधार का निर्णय करता है, बुराई, ढलाव और बिगाड़ का नहीं। ___ शास्त्रकारों ने विवेक को धर्म इसलिए कहा है कि वह उसे सत् की ओर प्रेरित करता है और असत् से बचने की दृष्टि देता है। विवेक जागता होता है, तब मनुष्य का भाग्य और कर्तव्य दोनों जागते होते हैं । उसके सो जाने पर वे भी सो जाते हैं । विवेक जागृत रहे, यह मनुष्य के लिए सदैव अपेक्षणीय है, क्योंकि आत्म-सुधार का मूल यही है । इसी के आधार पर मनुष्य जहां है, उससे आगे बढ़ने को प्रयत्नशील होता है और जैसा है, उससे अधिक अच्छा बनने का प्रयास करता है । विवेक पूर्ण इसी सुधार-परम्परा को अणुव्रत कहा जाता है।
अणु और व्रत 'अण' यह इसलिए है कि मनुष्य अपनी शक्ति को तोलकर उसे यथा-शक्ति ग्रहण करता है। अधिक शक्ति वाले उससे बड़ा व्रत भी ग्रहण कर सकते हैं। वह पूर्ण
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