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अणुव्रत आन्दोलन : एक परिचय १२५ पूरी हो गई। यह छोटी-सी घटना अणुव्रत-आन्दोलन की नींव का पहला पत्थर बनी।
लक्ष्य और साधन इस छोटी-सी भूमिका से प्रारम्भ हुआ यह आन्दोलन क्रमश: प्रगति करता रहा है। राष्ट्र के छोटे-बड़े सभी व्यक्तियों का इसने अपनी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इस आन्दोलन का लक्ष्य है
(क) मनुष्य को आत्म-संयम की ओर प्रेरित करना। (ख) मैत्री, एकता और शान्ति की स्थापना करना। (ग) शोषण-विहीन और स्वतंत्र समाज की रचना करना।
अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधन भी शुद्ध ही होने चाहिए, ऐसा आचार्यश्री का विश्वास है, अतः इस आन्दोलन को वे हृदय-परिवर्तन का आन्दोलन कहते हैं। वैचारिक क्रान्ति के द्वारा वे अप्रामाणिकता, संग्रहवृत्ति, शोषण और अन्य अनैतिक वृत्तियों के प्रति जन-मानस को विरक्त कर देना चाहते हैं । व्यक्ति-व्यक्ति से सम्पर्क कर उनमें व्रत का शुद्ध जीवन का संकल्प जगाना चाहते हैं । ये साधन लक्ष्य-प्राप्ति में विलम्बकारी तो हो सकते हैं, परन्तु लक्ष्य से भटकने नहीं देते, विपरीत फल नहीं लाते।
असाम्प्रदायिक आन्दोलन का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही असाम्प्रदायिक रहा है, अतः केवल चरित्रविकास की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए.-धर्म, जाति, राष्ट्रीयता आदि भेदों से मुक्त होकर यह सभी के लिए समान-भूमिका पर साधना का मार्ग प्रस्तुत करता है । यही कारण है कि इसमें हिन्दू, सिख, मुसलमान, ईसाई और जैन आदि सभी धर्मों के लोग सम्मिलित हैं। मूलतः इसके नियम सभी धर्मों के मान्य सिद्धान्तों का समन्वित रूप हैं ।
व्यवहार धर्म अणुव्रत-आन्दोलन मानता है कि सत्य और अहिंसा केवल मान्यता के ही धर्म नहीं हैं, वे जीवन के हर क्षेत्र में व्यवहार्य भी हैं। जब-जब ये व्यवहार्य कोटि से हटते हैं, तब-तब मानव के हर व्यवहार में अनैतिकता छा जाती है, कथनी और करनी भिन्न हो जाती है, मनुष्य का तब अधःपतन हो जाता है। वर्तमान में जो आपाधापी मची हुई है, वह इसी का दुष्परिणाम है । अणुव्रत आन्दोलन चाहता है कि यह स्थिति विघटित हो और मनुष्य में सात्त्विक भावों का जागरण हो। सुखसमृद्धि की आकांक्षा हर किसी को हो सकती है, परन्तु वह नैतिक साधनों से ही
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