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________________ १२४ चिन्तन के क्षितिज पर केवल शरीर ही है और न केवल आत्मा ही। भूख शरीर को भी लगती है और आत्मा को भी । साधारणतया न शरीर को भूखा रखा जा सकता है और न आत्मा को ही। आत्मा परितृप्त हो और शरीर भूखा हो तो क्वचित् मनुष्य निभा भी लेता है, परन्तु शरीर परितृप्त हो और आत्मा भूखी, तब तो किसी भी प्रकार से निभा पाना कठिन है । उस स्थिति में मनुष्य का पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। भारत की जनता आज कुछ ऐसी परिस्थितियों में गुजर रही है कि वह अभी तक न अपने भूख का कोई समुचित समाधान खोज पायी है और न भूखी आत्मा का। अनेक पंचवर्षीय योजनाओं की पूर्ति के बावजूद अभी समस्या जहां की तहां है। उनले शारीरिक आवश्यकताओं मात्र की भी पूर्ति नहीं की जा सकी है। आत्मिक पक्ष की तो वहां सर्वथा उपेक्षा ही की गई है। आन्दोलन का उत्स आचार्यश्री तुलसी ने आत्म-पक्ष के उस अपेक्षित क्षेत्र में कार्य करने के लिए सन् १६४६ में अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया। एक छोटी-सी घटना इसका कारण बनी। राजस्थान के एक छोटे कस्बे छापर में आचार्यश्री तुलसी का चातुर्मासिक प्रवास था । एक दिन उनके उपपात में अनौपचारिक विचार-चर्चा करते हुए किसी भाई ने कहा—'आज की परिस्थितियों में नैतिकता का पालन कर पाना असम्भव है। आस्था के इस अधःपतन को देखकर आचार्यश्री का भगवान्-प्रधान हृदय सिहर उठा। उन्हें लगा, जन-मानस की आस्था का महल डगमगाने लगा है। यदि समय पर इसे नहीं सम्हाला गया तो यह शीघ्र ही धराशायी हो जायेगा। उसी दिन उन्होंने अपने प्रातः कालीन प्रवचन में सहस्रों की संख्या में उपस्थित जन-समूह को आह्वान करते हुए कहा—'धर्म केवल उपासना का ही तत्त्व नहीं है। उससे जीवन का हर व्यवहार प्रकाशित होना चाहिए। उपासनागृह में स्वयं को धार्मिक अनुभव करने वाला व्यक्ति बाहर आकर यदि वंचक बन जाता है, तो यह आत्म-वंचना के साथ-साथ जनता के साथ भी धोखा है । ऐसे व्यक्तियों की बहुलता राष्ट्र के नैतिक स्तर को नीचा कर देती है और अनैतिकता की बाढ़ ला देती है । इस सर्वग्रासी बाढ़ को रोकने के लिए मैं आज आप लोगों में से केवल पचीस व्यक्तियों की मांग करता हूं। क्या मैं आशा करूं कि मार्गस्थ सभी खतरों का सामना करने को कृत-संकल्प होकर नैतिक मूल्यों की पूनः प्रतिष्ठा में अपना सर्वस्व लगा देने वाले पचीस व्यक्ति इस परिषद में से मुझे मिल जायेंगे?' ___ आचार्यश्री तुलसी के इस आह्वान से वातावरण में एक गम्भीरता छा गई। उपस्थित व्यक्ति अपने-अपने आत्म-बल को तोलने लगे। सहसा ही कुछ व्यक्ति खड़े हए और उन्होंने अपने-अपने नाम प्रस्तुत किए। धीरे-धीरे पचीस की वह संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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