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________________ अणुव्रत आन्दोलन : एक परिचय प्रगति और प्रतिगति महारथी कर्ण को जब सूत-पुत्र होने के कारण अवज्ञा का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने अपनी ओर से स्पष्टीकरण करते हुए कहा—'देवायत्तं कुले जन्म, मदायत्तं त पौरुषम् । अर्थात्-कौन से कुल में मेरा जन्म हो, यह निर्णय करना मेरे वश की बात नहीं थी। यह तो देवाधीन थी, परन्तु अब मुझे जो कुछ बनना है, उसके लिए सम्पूर्ण पौरुष के साथ जुट जाना मेरे वश की बात है। उसमें कहीं कमी रहती हो तो वह मेरी ही खामी कही जा सकती है । कर्ण की उपर्युक्त बात आज के हर मनुष्य का मार्ग-दर्शन करने वाली है। हमें जीवन प्राप्त हुआ है, यह प्रकृति की एक सहज प्रक्रिया है, परन्तु उस जीवन को उन्नत या अवनत बनाने में हमारा पौरुष ही उत्तरदायी है। हमारा जीवन कैसा होना चाहिए, इसका निर्णय हमारे अतिरिक्त कोई दूसरा करने वाला नहीं है। हमारे लिए हम ही निर्णय और तदनुरूप पौरुष करने के अधिकारी हैं। गति मनुष्य के स्वभाव में रमी हुई है । वह कहीं भी हो, विपन्न या सम्पन्न किसी भी अवस्था में हो, एक रूप में स्थिर होकर बैठा नहीं रह सकता, कुछ-न-कुछ गति अवश्य करता है । वही गति यदि विवेक के प्रकाश में की जाती है, प्रगति बन जाती है, अन्यथा प्रतिगति। प्रगति उसके विकास और उन्नति का बीज है, तो प्रतिगति ह्रास और अवनति का। पौरुष की सार्थकता उन्नति और विकास में ही है, अवनति और ह्रास में नहीं। __ उत्थान और पतन तथा विकास और ह्रास भौतिक क्षेत्र में भी होता है और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी। भौतिक क्षेत्र के उत्थान और पतन का मापदण्ड आर्थिक विकास होता है और आध्यात्मिक क्षेत्र के उत्थान-पतन का मापदण्ड होता है, चारित्रिक विकास । प्रथम प्रकार का विकास मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और द्वितीय प्रकार का विकास आत्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है। मनुष्य शरीर आत्मा का एक सम्मिलित रूप है। न वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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