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मर्यादा - महोत्सव : सांस्कृतिक पर्व १२१
तेरापंथ एक धार्मिक संगठन है । आत्म नैर्मल्य की साधना में पारस्परिक सहयोग करना उसका लक्ष्य है । संगठन है तो उसे बनाये रखने के लिए मर्यादाएं भी हैं । मर्यादा अर्थात् अनुशासन । जो अनुशासित नहीं होता, वह लक्ष्य के प्रतिअसंदिग्ध एवं निर्णीत गति नहीं कर पाता । अनुशासित होना संगठन के लिए जितना आवश्यक है उससे भी कहीं अधिक वह अपनी प्रगति के लिए आवश्यक होता है। जैनाचार्यों ने अनुशासनहीन समाज को अस्थि-संघात मात्र माना है, उसमें कोई प्राणवत्ता और क्रियाशीलता नहीं होती। ऐसे संगठन शीघ्र ही अपना अस्तित्व खो देते हैं ।
अनुशासन जब हृदय की पवित्रता से पाला जाता है तब वह व्यक्ति के चरित्र विकास का द्योतक होता है और जब दंड की नीति से पाला जाता है तब विवशता का । हृदय की पवित्रता व्यक्ति को आचरण की ओर प्रवृत्त करती है । पवित्रता के अभाव में दंड की नीति ही कार्य करवाती है । परन्तु वहां कार्य किया नहीं जाता, करवाया जाता है । वह संगठन की अस्वस्थता का ही द्योतक है।
तेरापंथ एक सुमर्यादित एवं स्वस्थ संगठन है । उसके आद्य प्रणेता आचार्य भिक्षु ने जो मर्यादाएं निर्मित की वे संघ को सुव्यवस्था प्रदान करने वाली तो थीं ही, साथ ही व्यक्ति के स्वातंत्र्य का भी आदर करने वाली थीं। ऐसी मर्यादाएं जीवन को समृद्ध करने वाली होती हैं, कुंठित नहीं । कुण्ठा तब उत्पन्न होती है, जब मर्यादा लादी जाती है । आचार्य भिक्षु ने ऐसा कभी नहीं किया। उन्होंने जो भी मर्यादा पत्र लिखे, साधुगण की सम्मति प्राप्त करने के पश्चात् ही उन्हें अंतिम रूप प्रदान किया ।
तेरापंथ धर्म संघ की तृतीय शताब्दी का यह चतुर्थ दशक चालू हुआ है। समयगणना की दृष्टि से यह एक अर्वाचीन धर्मसंघ है । जनमानस में प्राचीनता के साथ जो गौरवानुभूति तथा लगाव होता है, वह अर्वाचीनता के साथ प्रायः नहीं होता, परन्तु तेरापंथ को इसका अपवाद कहा जा सकता है । उसने न केवल अपने अनुयायियों के मन में ही, अपितु अन्य जनों के मन में भी एक आदरास्पद स्थान बनाया है । प्रत्येक अनुयायी तेरापंथ को अपना अभिन्न अंग मानकर चलता है । यह लगाव किसी के द्वारा ऊपर से थोपा हुआ नहीं, किन्तु स्वाभाविक होता है ।
आचार्य भिक्षु बड़े दूरदर्शी और सूझ-बूझ वाले थे । उन्होंने अपने युग के अनेक धर्म-संघों को टूटते एवं बिखरते देखा था । कोई भी महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत महिमा बढ़ाने के लिए नया संगठन बनाता और वह उसका संचालक बनकर गुरुपद पर आसीन हो जाता। आचार्य भिक्षु इस प्रकार की वैयक्तिक मानसिकता को धर्म-संघ के लिए अत्यन्त विनाशक मानते थे । इसे रोकने के लिए उन्होंने विभिन्न प्रकार की मर्यादाओं का निर्माण किया ।
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