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________________ १२० चिन्तन के क्षितिज पर होती ही है। आचार्य भिक्षु ने इस धार्मिक संगठन के लिए जो नियम बनाये, उनको उन्होंने 'मर्यादा' शब्द से अभिहित किया। नियम या शासन शब्द की अपेक्षा 'मर्यादा' शब्द अधिक भावपूर्ण एवं संगत प्रतीत होता है। नियम शब्द से नियंता एवं नियंत्रित के तथा शासन शब्द से शासक और शासित के भावों की ओर ध्यान जाता है, साथ ही एक बाध्यता की-सी स्थिति अनुभूत होने लगती है, परन्तु 'मर्यादा' शब्द से बाध्यता रहित केवल कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की सीमा का बोध होता है। आचार्य भिक्षु ने जो मर्यादाएं बनायीं, उन्हें तत्कालीन साधु-समुदाय से पूछकर, उनकी स्वीकृति प्राप्त करने के पश्चात् ही संघ में लागू किया। वे लिखते हैं.--"सर्व साधु-साध्वियां नै पूछीन, वां कनां तूं कहिवाय नै मरजादा बांधी छै... जिणरा परिणाम चोखा हुवै ते आरै हुइज्यो, कोई सरमासरमी रो काम छै नहीं, मं ओर नै मन में और इमतो साधु नै करणो छै नहीं।" - आचार्य भिक्षु व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बहुत मूल्यवान् समझते थे, अतः उसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करने में उनकी कोई रुचि नहीं थी, परन्तु निरंकुश छूट देकर संघ में प्रमाद को बढ़ावा देना भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। दोनों का संतुलन बिठाने के लिए ही उन्होंने ऐसी मर्यादाओं का निर्माण किया, जिनकी आवश्यकता संघ के साधु-साध्वियों को भी प्रतीत हुई। इसीलिए तेरापंथ की मर्यादाएं शासक द्वारा थोपी गयी न होकर स्वयं शिष्यों द्वारा संयम की भूमिका पर आत्मस्वीकृति से समुद्भूत हैं । आत्म-संयम की स्थिति में मर्यादाएं परतंत्रता की बेड़ियां न होकर परम स्वतंत्रता की जननी बन जाती हैं। वे साधक के विवेक को जागृत रखती हैं और भटकन से बचाती हैं। आत्मस्वीकृति ही मर्यादाओं की पवित्रता की सीमा-रेखा है। उसके अभाव में केवल बाह्य दबाव या भय उन्हें अपवित्र बना डालता है। संघ में दीक्षित व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों से आये हुए होते हैं। उनका खान-पान, भाषा-भूषा एवं संस्कार आदि काफी भिन्नता लिये होते हैं, फिर भी यहां आकर वे समान मर्यादाओं का आधार पाकर बंधु बन जाते हैं और साध्य-बिंदु पर एकात्मकता का अनुभव करते हैं । यही कारण है कि बड़ी संख्या में एकत्रित होकर भी वे शांत सहवास में समाधिपूर्वक वैसे ही रह लेते हैं जैसे एक शरीर में उसके सहस्रों अवयव। संघीय जीवन में व्यक्ति को अपनी निस्सीम स्वतंत्रता के कुछ अंशों का बलिदान करना होता है। अकेला व्यक्ति यथारुचि रह सकता है परन्तु समष्टि में रहने वाले को अपनी रुचि के कोणों को इस प्रकार से घिस लेना पड़ता है कि वे समष्टिगत किसी अन्य व्यक्ति के रुचि-कोणों से न टकरा पाएं । प्रत्येक संगठन पारस्परिकता का आधार पाकर खड़ा होता एवं पनपता है । धार्मिक संगठन भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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