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________________ ११४ चिन्तन के क्षितिज पर चलता रहा, गुरु ने तब ऊबते हुए कहा-'कलिकाल में जितना आचार पाला जा रहा है, वही कौन-सा कम है ? इससे अधिक की आशा तुम्हें छोड़ देनी चाहिए।' गुरु का रुख जान लेने के पश्चात् स्वामीजी ने अन्य आचार्यों से भी संपर्क किया, परंतु सर्वत्र राख के ढेर ही मिले, चिनगारी का कहीं अता-पता तक नहीं था। उस स्थिति में स्वामीजी ने अपने ही बल-बूते पर कार्य करने का निश्चय किया। तेरापंथ स्वामीजी ने वि० संवत् १८१७ की गुरु-पूर्णिमा (आषाढ पूर्णिमा) के दिन नये संघ की स्थापना की। प्रारंभ में उनके सहयोगी १३ साधु और १३ ही श्रावक थे, अतः लोगों ने उन्हें तेरापंथी कहना प्रारंभ कर दिया। स्वामीजी को जब यह पता चला तो उन्होंने उस नाम को स्वीकार करते हुए कहा—'हे प्रभो! यह तेरापंथ ।' नाम की संख्या-परकता को भी कायम रखते हुए उन्होंने कहा--'पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति---इन तेरह नियमों की यथार्थ पूर्णता को जो अपना लक्ष्य बनाकर चलता है, वह तेरापंर्थी है।' इस प्रकार दूसरों के द्वारा दिये गये नाम को स्वामीजी ने अपनी अर्थवत्ता से उपादेय तो बनाया ही, अतिशायी भी बना दिया। संविधान स्वामी भीखणजी ने संगठन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अनेक नियम बनाये । उन्होंने उनको मर्यादा नाम प्रदान किया। आज की भाषा में हम उसे संविधान कह सकते हैं । मर्यादाएं स्वामीजी ने बनायीं, परंतु प्रत्येक साधु-साध्वी को समझाकर उनकी स्वीकृति लेने के पश्चात् उन्हें लागू किया। उन्हें एकतंत्र और लोकतंत्र का अद्भुत मिश्रण कहा जा सकता है। स्वामीजी के सम्मुख उस समय मुख्यतः चार बिंदु थे---सम्यक् आचार और सम्यक् विचारों का संरक्षण एवं प्रवर्धन तथा एकता और अनुशासन का संस्थापन । चारों ही बातों में स्वामीजी को परिपूर्ण सफलता मिली। तेरापंथ आज एक आचार और एक विचार के लिए प्रसिद्ध है। उसी प्रकार एकता और अनुशासन का तो वह एक प्रतीक बन गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि तेरापंथ में कभी कोई मतभेद होता ही नहीं। वह होता है, परंतु स्वामीजी ने मतभेदों को समाहित करने के लिए तीन उपाय बतलाये हैं, उनसे वे बहुधा समाप्त हो जाते हैं । उनमें प्रथम उपाय है कि आगमज्ञ विद्वानों के साथ बैठकर तद्विषयक चर्चा करो। अपनी बात समझाओ और उनकी समझो। उतने से यदि समाधान प्राप्त न हो पाये तो दूसरा उपाय है कि आचार्य जो निर्णय दे, उसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर लो। उसके लिए भी मन साक्षी न दे तो तीसरा और अंतिम उपाय है कि अपने ज्ञान की अपूर्णता को ध्यान में रखकर उस प्रश्न को सर्वज्ञ के चरणों में समर्पित कर दो। अर्थात् भविष्य में कभी समाहित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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