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________________ एकता और अनुशासन का प्रतीक : तेरापंथ लौह-संकल्प एकता और अनुशासन का स्थान जीवन के हर क्षेत्र में सबसे ऊंचा गिना जाता है । इसके बिना न कोई राष्ट्र उन्नति कर सकता है और न समाज । यहां तक कि धार्मिक संघों के लिए भी ये प्राण तत्त्व गिने जाते हैं । इनकी अवहेलना संगठन के जीवन की अवहेलना सिद्ध होती है । कुछ शताब्दियों पूर्व जैन धर्म ऐसे ही एक संक्रांति-काल से गुजर रहा था । तब संघ छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त था । कोई एक ऐसा समर्थ आचार्य नहीं था, • जिसका अनुशासन सर्वमान्य हो सके । ऐसी स्थिति आचार-विचार की न्यूनता का पनपना भी कोई आश्चर्य की बात नहीं थी । उन विषम परिस्थितियों ने अवश्य ही अनेक व्यक्तियों के मन को आलोड़ित किया होगा, परन्तु उनसे लोहा लेने का लौह-संकल्प करने वाले अकेले स्वामी भीखणजी चिनगारी की खोज स्वामीजी एक निर्भीक व्यक्ति थे, सत्य को पाने के लिए उन्होंने अनेक मतों और पंथों का समीपता से निरीक्षण-परीक्षण एवं अध्ययन किया था । आखिर वे आचार्य रघुनाथजी के पास दीक्षित हुए। आठ वर्षों तक लगातार आगमों का गंभीर अध्ययन करने के पश्चात् उन्होंने पाया कि शास्त्रों में जिस आचार-विचार का उल्लेख है, तदनुरूप आचरण यहां नहीं है । तत्कालीन साधुओं के पारस्परिक विद्वेष- पूर्ण व्यवहारों को देखकर भी उनके मन में बड़ी वितृष्णा हुई, उन्हें लगा कि एकता और अनुशासन के संस्कार विलुप्तप्राय होते जा रहे हैं । आचार्य रघुनाथजी के सम्मुख सारी स्थिति रखते हुए स्वामीजी ने कहा 'आप गुरु हैं, सारी स्थितियों को सुधारने के अधिकारी हैं, अतः पूर्ण सजगता और कठोरता से कदम उठाकर अभी से इनका प्रतिकार करना चाहिए, अन्यथा ये ही संस्कार बद्धमूल हो जाएंगे ।' लगभग दो वर्षों तक गुरु-शिष्य में यह विचार-मंथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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